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 क्राँतिकारी साँगी श्री धनपत सिंह :एक जीवन परिचय जीवन के अविस्मरणीय पहलू     ‘ब्राह्मणवाद’ जैसी कोई विचारधरा या ऐसी कोई जीवन शैली या ऐसा कोई दबाव समूह या मत या सि(ाँत आदि भारत में कभी भी अस्तित्व में नहीं रहे हैं। भारतवर्ष के दलित लेखक एक स्वर से गर्दभ स्वर और कुक्कूर भोंक का सहारा लेकर पानी पी-पीकर दिन-रात कोसते रहते हैं कि ‘ब्राह्मणवाद’ ने यह कर दिया, ब्राह्मणवाद ने वह कर दिया। यदि ‘ब्राह्मण’ शब्द का ये लेखक अर्थ भी जान लेने की तत्परता दिखा लेते तो यह स्थिति उठती ही नहीं। लेकिन ये दलित लेखक ऐसा करेंगे क्यों। यदि ये ऐसा करेंगे तो इनकी राजनीति पिफर कैसे चलेगी? राजनीति चलाने हेतु तो यह आवश्यक हो जाता है कि ये दलित लेखक सत्य-असत्य की खोज न करके केवल शब्दों का ऐसा कैदखाना निर्मित करें जिससे कुछ लोगों को बहकाया जा सके ताकि वे उनके अनुयायी बन जायें। सत्य-असत्य की खोज यदि की जाये तो राजनीति न तो सवर्णों की चल सकेगी तथा न ही इन नये किस्म के सवर्णों की यानि की दलितों की। उपकार-अपकार करने का इरादा इनका कोई होता भी नहीं है। हाँ, उफपर से ये दिखाने का प्रयास अवश्य करते है कि हम ...
  कुछ हरियाणवी चुटकुले     हरियाणे का एक छोरा दिल्ली की एक फैक्ट्री मैं काम कर्या करदा. एक दिन्न छुट्टी मांगण खात्तर मनेजर धौरै आया तो मनेजर उसतै बोल्या, ‘रै छोरे, एक बात समझ मैं कोनी आई अक् तै हर दूसरे-तीसरे दिन छुट्टी लेण आजै, कदी हनीमून पै जाण खात्तर, कदे छोरे के नामकरण खात्तर, कदे, ससुर की तेरहवीं खात्तर...हैं, न्यू बता अक इब क्यां खात्तर छुट्टी मांग रह्या सै ?     लल्लू धीरे सी बोल्या, मनेजर सा‘ब, काल मेरा ब्याह सै. श्र श्र श्र     लल्लू की घरआली कै छः बालक थे. जिब बी कोईसा बालक रोवण लागता तो लल्लू की घरआली न्यूए समझात्ती ‘देख बेट्टा, गलती करकै रोया नी करते...     एक दिन्न बालकां नै घणाए ऊधम काट गेर्या. लल्लू की घरआली परेसान रोवण लागगी अर आसमान कान्नी हाथ ठाकै बोल्ली, ‘इसे बालकां तै तो बगैर बालकां केइ अच्छे थे....     आपणी मां नै न्यू कहन्दे देख छोटी छोरी धौरै आकै तुतला कै, प्यार सेत्ती बोल्ली, ‘री मां, देखे गलती करकै रोया नी करते.... श्र श्र श्र     लल्लू अर उसकी घरआली बस अड्डे पै बेट्ठे...
 हरियाणवी की समृद्धि के लिए निरन्तर जारी हैं प्रयास -सुरेश जांगिड़ उदय     हरियाणवी साहित्य को अगर समृद्धता की ओर कुछ ले गया है तो वह है इसकी सांग परम्परा है। भले ही आज इन्टरनेट का युग है परन्तु आज भी ग्रामीण इलाकों में बड़े चाव से सांगों का प्रदर्शन होता है। जितना योगदान इन सांग और सांगियों का हरियाणवी साहित्य में है उतना योगदान अन्य किसी विधा का नहीं है। लेकिन सांग परम्परा की सबसे बड़ी कमजोरी यह रही है कि उसका कोई लिखित रिकार्ड न होने के कारण शुद्धता या अशुद्धता का विकट सवाल खड़ा हो जाता है। यह निर्णय करना बड़ा कठिन हो जाता है कि इस रागनी में कितनी और किसकी मिलावट है? यह संवेदनशील कलाकार की बड़ी सहज सी बात होती है कि जब भी कोई कलाकार केवल अपनी यादाश्त के सहारे कोई रचना सुनाता है तो उस रचना पर जहां वह उसे सुना रहा होता है उस माहौल और परिस्थिति का पूरा-पूरा असर होता है। यही असर रचना में कई बार हेर-फेर करा देता है या माहौल से प्रेरित होकर सहज ही उसमें परिवर्तन हो जाता है, क्योंकि कलाकार हमेशा से ही अति संवेदनशील होते हैं, अथवा दूसरा जब भी किसी कलाकार की कोई भी रचना उसका कोई...