क्राँतिकारी साँगी श्री धनपत सिंह :एक जीवन परिचय
जीवन के अविस्मरणीय पहलू
    ‘ब्राह्मणवाद’ जैसी कोई विचारधरा या ऐसी कोई जीवन शैली या ऐसा कोई दबाव समूह या मत या सि(ाँत आदि भारत में कभी भी अस्तित्व में नहीं रहे हैं। भारतवर्ष के दलित लेखक एक स्वर से गर्दभ स्वर और कुक्कूर भोंक का सहारा लेकर पानी पी-पीकर दिन-रात कोसते रहते हैं कि ‘ब्राह्मणवाद’ ने यह कर दिया, ब्राह्मणवाद ने वह कर दिया। यदि ‘ब्राह्मण’ शब्द का ये लेखक अर्थ भी जान लेने की तत्परता दिखा लेते तो यह स्थिति उठती ही नहीं। लेकिन ये दलित लेखक ऐसा करेंगे क्यों। यदि ये ऐसा करेंगे तो इनकी राजनीति पिफर कैसे चलेगी? राजनीति चलाने हेतु तो यह आवश्यक हो जाता है कि ये दलित लेखक सत्य-असत्य की खोज न करके केवल शब्दों का ऐसा कैदखाना निर्मित करें जिससे कुछ लोगों को बहकाया जा सके ताकि वे उनके अनुयायी बन जायें। सत्य-असत्य की खोज यदि की जाये तो राजनीति न तो सवर्णों की चल सकेगी तथा न ही इन नये किस्म के सवर्णों की यानि की दलितों की। उपकार-अपकार करने का इरादा इनका कोई होता भी नहीं है। हाँ, उफपर से ये दिखाने का प्रयास अवश्य करते है कि हम दलित लेखक दबे-कुचले, गुलाम, दीन-हीन व जातिवाद के नाम पर क्रूरता का शिकार लोगों का कल्याण करने हेतु ही यह सब कर रहे हैं। यदि ये इस प्रकार की कपट-झपट की शब्दों की लफ्रपफाजी का सहारा न लें तो इनकी राजनीति कैसे चमके? ‘मनस्मृति’ जलाने से जो दलित लेखक यह माने बैठे हैं कि इससे दलितों का उ(ार हो जाएगा, दलित इससे अपने अध्किरों की प्राप्ति कर लेंगे या उन पर अत्याचार होने बंद हो जायेंगे तो यह उनकी मूढ़         व अनुभवहीन सोच की पराकाष्ठा ही है। समाज में इस तरह से गाली-गलौच देने, मिथ्या आरोप-प्रत्यारोप लगाने, अनर्गल संभाषण करने, अपने मूल की निंदा करने, सत्य से मुँह छुपाने तथा तथ्यों की कपटपूर्ण व्याख्या करने से न तो कभी समाज बदले हैं तथा न हीं क्राँतियाँ आई  हैं। सोवियत संघ तथा अन्य साम्यवादी देश इसका उदाहरण हमारे सामने हैं। कुछ समय के लिये यह लग सकता है कि क्राँति आ गई लेकिन यह सब एक प्रकार का सम्मोहन होता है जो थोड़ा समय व्यतीत होने पर टूट जाता है। परम आदरणीय भीमराव अंबेडकर ने सन् 1927 ई. में मनुस्मृति की होली जलाई थी, लेकिन परिणाम क्या हुआ? 1927 से पूर्व की दलितों की स्थिति व उसके बाद की दलितों की स्थिति में कोई क्राँतिकारी परिवर्तन आ गया हो, इसका दावा कोई भी नहीं कर सकता, स्वयं दलित भी नहीं। इस तरह से यदि समाज बदलते या इस तरह से यदि क्राँतियाँ आती तो कोई भी कभी भी कुछ भी जलाने की मूढता करके समाज व राष्ट्रों में आमूल-चूक क्राँति लाकर परिवर्तन कर देते। हाँ, राजनीति में इस तरह के कपट व छल से लोगों को बेवकूपफ बनाकर अपना उल्लू सीध करने की परंपरा सदैव से चलती आई है। लेकिन हकीकत यह है कि इस तरह की मूढताओं से बदलाव, परिवर्तन या क्राँति तो क्या आनी है, उल्टे वैमनस्य, विरोध्, हिंसा व बदले की भावना जरूर व्यक्ति, समाज व राष्ट्र में व्याप्त हो जाती है। किसी को दुश्मन मानकर उसके हृदय परिवर्तन की बात करना मनोविज्ञान की दृष्टि से तथा आध्ुनिक चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से भी ठीक नहीं है। पता नहीं राजनीति की महत्वाकाँक्षा क्या-क्या दुष्ट कर्म करवायेगी। ब्राह्मणवाद, दलितवाद, नारीवाद, यह वाद, वह वाद आदि सब सड़े हुए मस्तिष्कों की उपज है।
    यदि वास्तव में ये सब ‘वादी’ व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र व पृथ्वी हेतु कुछ सच में ही करना चाहते हैं तो प्रेम, स्नेह व मैत्रा से करेंऋ विरोध्, दुश्मनी व आतंक से नहीं। सि(ार्थ बु( ने ऐसे ही तो किया था। उन्होंने विकृत हुए वैदिक आर्य र्ध्म की शु( हेतु प्रयास किया था, न कि  अपनी राजनीति चलाने हेतु उसको गालियाँ दी। बु( को आधर मानकर पिफर राजनीति होने लगी तथा बु( की मूल देशना को अनुयायियों ने दपफन कर दिया। आजकल के दलित जब बु( का उदाहरण देते हैं तो वे अपने आपको बु( का सबसे बड़ा शत्रा ही सि( करते हैं। बु( व मार्क्स की तुलना करने वालों को केवल ‘बु(ू’ ही कहा जा सकता है। कहाँ करूणा, मैत्रा, मुदिता व प्रेम का बु( का उपदेश तथा कहाँ ¯हसा, मारकाट, बलात्कार, सामुहिक नरसंहार, वैमनस्य व भेदभाव की मार्क्स व मार्क्सवादियों की सीख?
    बुराई गलत है लेकिन जिसमें बुराई है वह तो ठीक है। बुराई को मिटाना है लेकिन जिसमें बुराई मौजुद है उसको तो बचाना है। आर्य, हिंदु, ईसाई, पारसी या यहुदी किसी में भी यदि बुराई मौजुद है तो उसको दूर किया जाना चाहिए, लेकिन इन सबको कलंकित करके या इनकी हत्या करके नहीं, अपितु इनको बचाकर ही। शरीर का कोई अंग यदि व्याध्ग्रिस्त हो जाये तो पूरे शरीर को दुश्मन मानकर उसको नष्ट तो नहीं कर दिया जाता। अंग की व्याधि् की चिकित्सा उसके मूल कारणों को जानकर भलि तरह से की जाती है। कभी-कभार यदि अंग ज्यादा व्याध्ग्रिस्त हो जाये तो अंग विशेष को काटना भी पड़ता है। व्याधि् की चिकित्सा करने के नाम पर किसी की हत्या तो नहीं कर दी जाती। दलित लेखक यदि यह सोचते हों कि समस्त वैदिक आर्य हिंदु र्ध्म को नष्ट करके वे एक नया ‘दलितवाद’ प्रचलित करेंगे तो वे स्वयं भी पहले ही मर चुके होंगे। बचेगा तो केवल विनाश ही विनाश। पता नहीं क्यों उनकी बु( में यह बात नहीं घुसती? मुझे तो लगता है कि शायद वे इस योग्य बचे ही नहीं है। राजनीति करने वाला व्यक्ति या संगठन ऐसी बातें जानता तो है लेकिन वह जान बूझकर ऐसी बातों पर ध्यान ही नहीं देता है क्योंकि पिफर राजनीति नहीं चल पायेगी। मूलरूप से ये ब्राह्मणवादी, नारीवादी, दलितवादी, साम्यवादी, पफासीवादी, पफलाँवादी, ढिकाँवादी सब एक जैसे ही हैं। इन सब बोतलों में भरी हुई शराब एक ही है यानि व्यक्ति का व्यक्ति से, समाज का समाज से व राष्ट्र का राष्ट्र से विरोध्, वैरभाव व दुश्मनी करवाना। कुचक्र रचे जाते हैं तथा आगे भी रचे जाते रहेंगे तथा लोग इनके अनुयायी भी बनते रहेंगे। कौन कुचक्री, छली व शोषक अपने आपको इसी रूप में प्रकट करेगा? सबके सब कुचक्री, कपटी, छली व शोषक मूलरूप से राजनैतिक हैं तथा एक उ(ारक, अवतार, मसीहा व सुधरक के रूप में अपने आपको चिन्हित करवाना चाहते हैं।
    ये इस तरह के राजनीति करने वाले लोग र्ध्म, संप्रदाय, वर्ण, जाति, क्षेत्रा आदि के नाम पर कुचक्र रचते रहते हैं। ‘मनुस्मृति’ को जलाना राजनीति है तो ‘दास-कैपिटल’ को जलाना भी राजनीति है। क्या कोई यह दावा कर सकता है कि श्री भीमराव अंबेडकर के महाराष्ट्र में बौ( संप्रदाय में दीक्षा लेने से दलितों पर अत्याचार बंद हो गये हो? या वहाँ पर भेदभाव समाप्त हो गया हो? वहाँ पर तो आज भी जाति के नाम पर आये दिन झगड़े होते हैं तथा राज ठाकरे जैसे पागल मानसिकता के नेता उत्तर भारतीयों की हत्यायें करवा रहे हैं। परिवर्तन विरोध् से नहीं अपितु प्रेममिश्रित विरोध् से होगा। ये तथाकथित मनु को दोष देने वाले लोग मनु के ध्न्यभागी हैं क्योंकि इनके कारण इनकी राजनीति चल रही है तथा ये करोड़ों-अरबों रुपयों में वैभव विलास का जीवन जी रहे हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र नामक ‘वर्ण व्यवस्था’ को दिन-रात गाली देने वाले ये तथाकथित दलितवादी व नारीवादी लेखक इस व्यवस्था की वैज्ञानिकता व उपयोगिता को भलि तरह से जानते हैं लेकिन जान-बूझकर वे इसे मानते नहीं है क्योंकि पिफर उनकी राजनीति का क्या होगा? उनकी राजनीति तो लड़ाने पर निर्भर है न कि प्रेम, स्नेह, करूणा व मैत्रा पर। राजनीति जो भी कुकर्म करवाये, वही कम है। राजनीति, लेकिन इससे ‘नीति’ नदारद है।
    क्राँतिकारी साँगी श्री ध्नपत सिंह स्वयं निम्न कही जाने वाली जाति से संबंध्ति थे। कोई उनको ‘मिरासी’ कहता है तो कोई ‘डूम’। यह जाति मजदूरी के साथ-साथ गाँव से अन्नादि माँगकर गुजारा करने हेतु भी जानी जाती है। उपरोक्त बड़े-बड़े ‘वादों’ के संचालकों व सुधरकों हेतु, हरियाणा का यह अनपढ़ लोककवि श्री ध्नपत सिंह प्रेरणा का स्रोत बन सकता है। साँग नामक रसीली व रंगीली विध में जातिवाद तथा छुआछूत का जहर घोलने वाले साँगियों तथा उनके नाम पर अपनी राजनीति चमकाने या कुर्सी जंचाने वालों हेतु भी यह कथन सही है। अनेक वर्जनाओं, कटाक्षों, आपत्तियों, भेदभावों, अभावों व हस्तक्षेपों के बीच भी वे अडिग रहे तथा हरियाणवी साँग विध हेतु साँगों का वह खजाना प्रदान किया जिसे निहारकर बड़े-बड़े साँगियों के शिष्यों व अनुयायियों की छातियों पर इससे साँप लोटने लगे। वे इसे कैसे सहन कर सकते थे? उन्होंने पुरजोर कोशिश श्री ध्नपत सिंह को गुमनामी के अंध्ेरे में ध्केलने की या उनके साँगों को निकृष्ट सि( करके उनको दबाने की। ऐसे साँगी, गायक, लोकसाहित्यकार तथा लोकसाहित्य के लेखक साँग विध के सबसे बड़े दुश्मन हैं।
    अपने उफपर हुए अत्याचार, भेदभाव, शोषण व उँफच-नीच का बदला हमारे क्राँतिकारी साँगी श्री ध्नपत सिंह भी समाज में जहर घोलकर ले सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा किया नहीं। उन्होंने खतरे उठाकर भी प्रेम, करूणा, मैत्रा, सद्भाव, सौहार्द व भाई-चारे के पथ को स्वीकार किया तथा कहलाए ‘क्राँतिकारी साँगी श्री ध्नपत सिंह’। उन्होंने व्यक्ति से व्यक्ति व समाज से समाज को तोड़ा नहीं अपितु जोड़ने का काम किया। प्रस्तुत है साँगों के क्षेत्रा में ध््रूवतारे की तरह चमकने वाले क्राँतिकारी साँगी श्री ध्नपत सिंह के जीवन के विभिन्न पहलूओं के संबंध् में विचित्रा संक्षिप्त जानकारियाँ :-
    जन्मः- हरियाणा प्राँत में एक कहावत प्रचलित है ‘डूम की रोवै तो बी सुर म्हं रोवै।’ कहने का निहितार्थ यह है कि गायन करना ‘डूम’ जाति के संस्कारों में मौजुद है। यह उनके रोम-रोम में समाहित है। ऐसी ही एक जाति में श्री ध्नपत सिंह का जन्म सन् 1912ई. में ठीक उसी समय पर हुआ जब पूरे भारत में अंग्रेजों की क्रूर सत्ता के विरू( आंदोलन चल रहे थे, स्त्रियों की स्थिति में सुधर करने हेतु सुधरक जी-जान से प्रयास कर रहे थे, अस्पृश्यता के अंत व हरिजनो(ार हेतु अनेक महानुभाव कर्मक्षेत्रा में लगे हुए थे, प्रखर राष्ट्रवादी नेता श्री अरविंद, तिलक, विपिन चंदपाल व लाला लालजपत राय आदि क्राँतिकारी विचारों का प्रचार कर रहे थे, रास बिहारी बोस व उनके साथी लार्ड हर्डिज पर बम पेंफककर राष्ट्र की आजादी हेतु अपनी तड़पफ की अभिव्यक्ति कर रहे थेऋ लाला हरदयाल व उसके सहयोगी सैन-Úांसिसको में ‘गदर पार्टी’ की स्थापना कर रहे थे, प्रथम विश्वयु( की पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी तथा गाँध्ी जी का राष्ट्र के राजनीतिक पटल पर प्रवेश होने वाला था। उनके पिता का नाम श्री चंदा तथा माँ का नाम श्रीमती भोली था। वीर भूमि हरियाणा के हृदय तथा राजनैतिक राजधनी कहे जाने वाले प्रसि( शहर रोहतक के एक गाँव ¯नदाणा में उनका जन्म हुआ था। वर्तमान में यह गाँव रोहतक जिले की महम तहसील के अंतर्गत आता है।1
    परिवारः- श्री ध्नपत सिंह की पत्नी का नाम श्रीमती सुखी था। उनकी एक संतान ‘श्री मेनपाल’ एक पुत्रा चमेली देवी जोकि गांव मिर्जापुर जिला हिसार में ब्याही हुई है। मेनपाल के चार पुत्रा हुये, जिनके नाम सुशील ;42 वर्षद्ध, सुनील ;36 वर्षद्ध, पवन ;32 वर्षद्ध तथा राजेश ;29 वर्षद्ध हैं। श्री मेनपाल की आयु इस समय 70 वर्ष है। इन्होंने कई वर्ष तक अपने पिता श्री ध्नपत सिंह की साँग परंपरा को आगे बढ़ाया। श्री ध्नपत सिंह के साँगों के ये जीवित सर्वाध्कि प्रसि( विद्वान, मर्मज्ञ, तर्जों के जानने वाले, साँग कला के पारखी, साँग जीवन की प्रत्येक घटना के साक्षी, श्री ध्नपत सिंह तथा उनके शिष्यों द्वारा रचित 42 से अध्कि साँगों तथा 1500 से     अध्कि भजनों को सदैव अपनी जिह्ना पर रखने वाले यह लोककला साँग की ध्रोहर गाँव निंदाणा में गुमनामी, अभाव, सरकारी उपेक्षा तथा गरीबी का जीवन जी रहे हैं।2 सरलता, सहजता, सहिष्णुता, ग्रामीण सुलभ सहज अल्हड़ता तथा मर्यादापूर्ण उन्मुक्तता उनके रोम-रोम में समायी हुई हैं। साँग कला दिन-प्रतिदिन क्यों मरणासन्न हो रही है, यह उनके परिवार की स्थिति तथा उनके रहन-सहन को देखकर सहज ही मालूम हो जाता है। इस समय श्री मेनपाल साँग नहीं करते हैं। उनके सबसे छोटे सुपुत्रा श्री राजेश अपने दादा श्री ध्नपत सिंह की साँग विरासत को आगे बढ़ाने हेतु दिन-रात लगे हुए हैं। राजेश इस समय हरियाणा के अतिरिक्त पंजाब, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, दिल्ली, चडीगढ़, मुम्बई व कलकत्ता आदि राज्यों तथा महानगरों में साँग के माध्यम से श्रोताओं व दर्शकों का भरपूर मनोरंजन कर रहे हैं।3 अपने पिता श्री मेनपाल का मार्गदर्शन साँगी राजेश को पूरी तरह से प्राप्त है।
    शिक्षाः- श्री ध्नपत सिंह अध्कि पढ़े-लिखे नहीं थे। उन्होंने छठी कक्षा तक की शिक्षा ‘आर्य पाठशाला, मदीणा’ में हासिल की थी। उनकी शिक्षा का माध्यम उर्दू था।4 लेकिन जिनको जीवन में कुछ लीक से हटकर करना होता है वे आयोजित शिक्षा के कटघरे में कहाँ बंद रहते है, वे तो जो करने की ठान लेते हैं उसे करके ही दम लेते हैं। श्री ध्नपत सिंह भी एक ऐसी ही विभूति थे। ‘पढ़े हुए से कढ़ा हुआ अध्कि बु(मान होता है’, यह हरियाणवी कहावत उन पर पूरी तरह से चरितार्थ होती थी।
    साँग का शौकः- जब वे तीसरी कक्षा में पढ़ते थे तो उसी समय उनको साँग विध में रुचि हो गई थी। पाँचवी कक्षा में जब उन्होंने प्रवेश लिया तो उन्होंने अपने सर्व प्रथम साँग ‘राजा अंब’ की रचना कर डाली थी यानि जब वे मात्रा दस वर्ष के हुये थे तभी उन्होंने अपना सर्वप्रथम साँग ‘राजा अंब’ बना डाला था।5 साँग क्षेत्रा में श्री ध्नपत सिंह की बराबरी करने वाला कोई भी साँगी उन जितना प्रतिभावान है? उत्तर में कहा जा सकता है कि कोई भी नहीं। जिस आयु में बच्चे गुल्ली-डंडा खेलने या अन्य किसी प्रकार की बालसुलभ ध्माचौकड़ी मचाने में ही अपना समय व्यतीत करते हैं उस आयु में श्री ध्नपत सिंह ने साँगों की रचना करने में महारत हासिल कर ली थी। हिंदी की कहावत ‘पुत के पाँव पालने में ही पहचान लिये जाते हैं’, उनके संबंध् में सही सि( होती है। इस समय तक साँगों के संबंध् में उनका कोई भी गुरु नहीं था।
    साँग गुरुः- अपने स्वयं के बल पर कोई भी आगे नहीं बढ़ सकता। आगे बढ़ने हेतु या कुछ अभिनव या क्राँतिकारी करने हेतु किसी मार्गदर्शक या गुरु की आवश्यकता अवश्य ही होती है। भारतीय संस्कृति ने इस तथ्य व आवश्यकता को करोड़ों वर्ष पूर्व ही समझ लिया था। नास्तिक हो चाहे आस्तिक, सबको मार्गदर्शक या गुरु की आवश्यकता होती है। नास्तिक कहे जाने भारतीय दार्शनिक चार्वाक व सि(ार्थ बु( ने भी गुरुओें के ही मार्गदर्शन में अपने दार्शनिक विचारों को आगे बढ़ाया था। श्री ध्नपत सिंह भी इसके अपवाद नहीं हैं। उन्होंने सुनारियाँ गाँव निवासी एक प्रसि( भगवान के भक्त व भजनी ‘जमुनादास’ को अपना गुरु बनाया। उन्हें ‘जमुवा मीर’ के नाम से भी जाना जाता है। श्री ध्नपत सिंह ने अपने साँगों की अनेक रागनियों में अपने गुरु को इसी रूप में याद किया है।
        ध्नपत सिंह समर जमुवा, न्यूँ निस्तारा हो ज्यागा।।
                -साँग राजा अंब, रागनी-1
        जो जमुवा का चेला हो सै, सच्चा ज्ञान चाहिए सै।।
                -साँग गजनादे, रागनी-1
        श्री जमुनादास सुनारी आळा, देगा म्हारा सबूत।।
                -साँग सुलतान निहालते, रागनी-23
        ध्नपत सिंह समर जमुवा, शुरू कर दी कथा पुराणी।।
                -साँग रूप-बसंत, रागनी-21
        ध्नपत सिंह समर जमुवा, गुरु ज्ञान पाण नैं।।
                -साँग रूप-बसंत, रागनी-10
        ध्नपत सिंह समर जमुवा नैं सार विचार बताए।
        गुरुद्रोही, नुगरे हो डूबे मझधर बताए।
        दुनियाँ म्हं एकसार बताए तीर, तमच्चा, ताना।।
                -साँग अमर सिंह राठौड़, रागनी-9
        जमुनादास र्ध्म का जंग, तनैं दिया चढ़ा कंवर पै रंग।।
                -साँग हीरामल जमाल, रागनी-12
        ओड़ै चालकै मार दिये, एक बै अपणे घर ले चाल।
        ध्नपत सिंह समर जमुवा नैं ज्ञान और सुरताल।
      समझण जोगा स्याणा सै मेरे बालम कुछ तो करिये ख्याल।
        मत कर वो मिशाल पिया जी जो कुत्ते खावैं खीर।।
                -साँग जंगल की राणी, रागनी-15
        ध्नपत सिंह समर जमुवा नैं, ध्न-ध्न कला सवाई।।
                -साँग बादल-बागी, रागनी-1
      कह ध्नपत सिंह समर जमुवा नैं, करते रहो सलाम पिया।
            -साँग चाँद सूरज, रागनी-1
    साँग कब शुरू किये?ः- श्री ध्नपत सिंह 18 वर्ष की आयु में ही साँग मंचन की कला में पारंगत हो गये थे।6 यह तब की बात है जब कि साँग मंच पर ‘बाजे भगत’ की तूती बोलती थी तथा श्रोता व दर्शक उनकी गायन व मंचन शैली से मंत्रा मुग्ध् होकर घंटों उनके साँगों को सुनते थे। पं. लखमीचंद उस समय साँग क्षेत्रा में जगह बनाने हेतु संघर्ष कर रहे थे। लेकिन बाजे भगत जैसे साँगकला के वटवृक्ष के होते उन्हें पनपने एवं आगे बढ़ने में कापफी मेहनत करनी पड़ रही थी। यहाँ तक कि उन्होंने बाजे भगत जैसी प्रसि( पाने हेतु अश्लील विषयों को छोड़कर पौराणिक, धर्मिक व नैतिक विषयों पर साँग बनाने को विवश होना पड़ रहा था।7
    कितने वर्ष तक साँग किये?ः- ज्यादा दिखावा करने वाले, छल व कपट की मदद लेने वाले, नशे की लत के शिकार हो जाने वाले, नकल करने वाले तथा दूसरों को नीचा दिखाने की ताक में तत्पर गायक अध्कि दिन तक मंचन व गायन के क्षेत्रा में नहीं रह पाते हैं। अपनी विकृत व संकीर्ण जीवन शैली की वजह से वे शीघ्र ही प्रतियोगिता से बाहर हो जाते हैं। आजकल कुकुरमुत्तों की तरह उग जाने वाले ‘कंपीटीशन’ इस बात का सशक्त प्रमाण हैं। अनेक गायक एकदम से शिखर पर चले जाते हैं तथा शीघ्र ही सुरा व सुंदरी के चक्कर में अपने को बर्बाद कर लेते हैं। ऐसे गायकों से हरियाणा की संस्कृति का भी बंटाधर हो रहा है। प्रामाणिकता इनमें कुछ है ही नहीं। श्री ध्नपत सिंह साँग क्षेत्रा में अकेले ऐसे साँगी थे जो लगातार सर्वाध्कि समय तक साँग करते रहे थे। उन्होंने लगातार 44 वर्ष तक साँग किये।8 साँग जादूगर बाजे भगत तथा पं. लखमीचंद जैसे गायक भी इस संबंध् में उनके सामने कहीं नहीं ठहरते। ये दोनों साँगी जितने वर्ष तक जिये थे उतने वर्ष तक तो श्री ध्नपत सिंह ने साँग ही किये थे। बाजे भगत की कुल आयु 40 वर्ष के लगभग तथा पं. लखमीचंद की आयु 42 वर्ष के लगभग थी जबकि श्री ध्नपत सिंह ने 44 वर्ष तक तो साँग ही किये थे।
    साँगों की संख्याः- साँगों की संख्या के संबंध् में भी रिकार्ड श्री ध्नपत सिंह के ही नाम है। उन्होंने 42 साँगों की रचना की थी। कुछ के अनुसार उनके द्वारा रचित साँगों की संख्या 52 है। लेकिन उन द्वारा रचित 42 साँग तो अब भी उपलब्ध् हैं।9 बाजे भगत के साँगों की संख्या 18 है तथा पं. लखमी द्वारा रचित साँगों की 23 है। पं. मांगेराम ने 27 साँगों की रचना की थी जबकि पफौजी मेहरसिंह द्वारा रचित 10-12 साँग ही मिलते हैं। इस तरह  से साँगों की संख्या के संबंध् में भी श्री ध्नपत सिंह सर्वोपरि ठहरते हैं।
    साँगों के नामः- उनके विभिन्न साँगों के नाम इस प्रकार हैं-
1. ज्यानी चोर, 2. बणदेबी, 3. हीर-राँझा, 4. हीरामल जमाल, 5. राजा गोपी चंद, 6. सेठ तारा चंद, 7. राजा अंब, 8. राजा हरिश्चंद्र, 9. रूप-बसंत, 10. निहाल दे-सुलतान, 11. गजनादे, 12. जंगल की राणी, 13. बादल-बागी, 14. शीलो-अशोक, 15. लीलो-चमन, 16. अंजुमन आरा, 17. चार-परी, 18. भड़ भूजा, 19. अमर¯सह राठोड़, 20. चाँद-सूरज, 21. नल-दमयंती, 22. राजा उत्तानपाद,  23. नौटकी, 24. खाँडेराव परी, 25. चाप सिंह, 26. पद्मावत, 27. गुल-सनेहर, 28. जंगी बहादुर, 29. लैला-मजनूँ, 30. शीरी-पफरियाद, 31. मोहिनी-गुजरी, 32. डाकू रामसिंह, 33. दूध्वाली गुजरी, 34. पूफल बहादुर, 35. अंगपाल, 36. कृष्णादेवी, 37. लक्कड़हारा, 38. सेठ उत्तमचंद, 39. छबीली भठियारी, 40. चंदना, 41. चाँद की कौर, 42. शिव जी का ब्याह
    पहला और अंतिम साँगः- श्री ध्नपत सिंह के पहले साँग का नाम ‘राजा अंब’ तथा अंतिम साँग का नाम ‘जंगल की राणी’ है।11 साँग             ‘राजा अंब’ में सरवर व नीर की करूण कथा का वर्णन है। साँग ‘जंगल की राणी’ में मृत परंपराओं को तोड़कर अपने प्रेम की प्राप्ति हेतु प्रयासरत एक महज लड़की की प्रेमकथा का वर्णन है। इसमें नारी को प्रेम के माध्यम से बंध्नों को तोड़ते हुए चित्रित किया गया है।
    सर्वाध्कि प्रसि( साँगः- हरेक साँगी की सभी रचनाएं उसके स्वयं के लिए तो प्यारी ही होती हैं, पिफर भी श्रोताओं व दर्शकों की दृष्टि से जिस साँग को सबसे अध्कि पसंद किया जाता है, वह उस साँगी का ‘मास्टर पीस’ साँग कहलाता है। स्वयं साँगी को भी सब साँगों में से कुछ साँग सबसे     अध्कि पसंद होते हैं तथा उनके मंचन में भी उसको अध्कि आनंद की अनुभूति होती है। बाजे भगत अपने साँग ‘चंद किरण’, ‘गोपीचंद’, ‘सरवर नीर’, ‘हीरामल जमाल’ को मंचित करने मेंऋ पं. लखमीचंद अपने साँग ‘शाही लक्कड़हारा’, ‘सेठ ताराचंद’ व ‘राजा हरिश्चंद्र’ को मंचित करने मेंऋ              पं. माँगेराम अपने साँग ‘ध््रुव भक्त’ व ‘कृष्ण जन्म’ को मंचित करने में सर्वाध्कि आनंद महसूस करते थेऋ इसलिये उनके इन साँगों को उनका ‘मास्टरपीस’ साँग कहा जाता है। श्री ध्नपत सिंह के साँग ‘ज्यानी-चोर’ को उनका मास्टरपीस साँग कहा जाता है।12 इसकी गवाही उस समय के एक प्रसि( साँगी पं. माँगेराम ने भी अपनी एक रागनी में दी है, जिसमें साँग के इतिहास के संबंध् में विचार किया गया है। देखिए वे पंक्तियाँ :-
    ध्नपत नैं एक श्याम बणाया, श्याम खटकग्या सार्याँ कै।
    पाक्का श्याम डूम का छोरा, काच्चा श्याम कुम्हाराँ कै।
    शीलो-शीलो कहकै बोल्लै, लाग्गै खटक गवाराँ कै।
    आँगिळयाँ के करै इशारे, जाली बलख बुखार्याँ नैं।
    शी-शी का एक साँग टौर दिया, जणूँ खाली मिर्च बेचार्याँ नैं।।
    मुँह जळ ज्यातै मीट्ण खा ले, ले अगले समझ इशार्याँ नैं।
    ज्यानी चोर पै हाँगा ला दिया, ध्नपत पिछल पिछाड़ी।।13

    सा¯जदेः- मोलड़ ;मोखराद्ध-सारंगी
         नानक ;छाराद्ध-ढोलकिया

        भुँडू ;उचाणाद्ध-नकारची
        रहीमबख्स ;मातणहेलद्ध-पेटी

        चंदू ;कथूराद्ध-नकली ;शुरू मेंद्ध
        कपूर उर्पफ कबरा ;कलोईद्ध-नकली ;बाद मेंद्ध14
    श्री ध्नपत सिंह के शिष्य साँगी बनवारी ने जब अपना साँग       बेड़ा अलग से बाँध् लिया तो वे चंदू ;कथूराद्ध नकली को तथा प्यारे को     श्री ध्नपत सिंह से माँगकर ले गये थे।
    साँगों पर बनी पिफल्मेंः- प्रेमचंद तथा अन्य अमर कहानीकारों व उपन्यासकारों की कहानियों व उपन्यासों पर पिफल्म-उद्योग ने कई सुपरहिट पिफल्मों का निर्माण किया है। वे पिफल्में लोगों द्वारा खूब सराही व देखी गई हैं। हरियाणवी साँग परंपरा में यह सौभाग्य सिर्पफ श्री ध्नपत सिंह को ही उपलब्ध् हुआ है। उन द्वारा रचित साँग ‘लीलो-चमन’ पर एक हरियाणवी पिफल्म का निर्माण किया गया था। इसी साँग की कहानी की नकल करके हिंदी में एक सुपरहिट पिफल्म ‘गदर’ का निर्माण किया गया था। यह पिफल्म देश की आजादी के समय हुई मारकाट की विभीषिका को दिखाते हुए एक एक हिंदु लड़के व एक मुसलमान लड़की की प्रेम कहानी है। कहानी का पूरा ताना-बाना श्री ध्नपत सिंह के साँग ‘लीलो-चमन’ की नकल मात्रा है। हरियाणा में श्री ध्नपत सिंह को छोड़कर अन्य किसी भी साँगी की साँग रचना पर कोई पिफल्म नहीं बनी है। साँग ‘लीलो-चमन’ को श्री ध्नपत सिंह ने सन् 1947-48 ई. में बनाया था।
    साँगी शिष्यः- 1. ठहरो श्याम;दरोड़ी-जींदद्ध, 2. बनवारी ढेल ;उल्हाणा मदीणाद्ध, 3. चंदगी ;भगाणाद्ध, 4. मुँशी ;काबड़ीद्ध, 5. तारा ;बलद्ध, 6. प्यारा ;बलद्ध, 7. काच्चे श्याम ;उ. प्र.द्ध, 8. चंदन ;मदाणाद्ध,    9. बलबीर ;खोखरीद्ध, 10. ओमप्रकाश ;खरकद्ध, 11. साब्बू ;खोखरीद्ध,   12. रामध्न;खरकद्ध, 13. बलवान ;खरैंटीद्ध, 14. प्रकाश ;खरकद्ध,            15. बंदूमीर ;महमद्ध;अब पाकिस्तान चला गया है तथा वहाँ पर कई साल से साँग विध को जीवित रखे हुये है।द्ध
    साँगों में नया क्या किया?ः- हर प्रसि( साँगी ने साँग विध को कुछ न कुछ नया प्रदान अवश्य किया है। साँगी दीपचंद ने ‘दामण’ का प्रचलन किया तो बाजे भगत साँगी ने साँगों में अपनी ‘बोल्ली’ के माध्यम से बादशाहत कायम की। पं. लखमीचंद ने ‘डोल्ली’ की शुरूआत की थी। श्री ध्नपत सिंह ने हरियाणवी साँग परंपरा में ‘अंगुली मारने’ को शुरू किया। उनके इस अंगुली मारने के विचित्रा अंदाज पर उस समय दर्शक व श्रोता इस तरह से उछल-उछल कर गिर पड़ते थे जैसे पतंगे दीपक पर उछलते हैं। सम्मोहित से होकर दर्शक व श्रोता घंटों उनके साँगों को देखा व सुना करते थे। साँग समाप्त होने के बाद भी कापफी समय तक श्री ध्नपत सिंह के सम्मोहन का प्रभाव उन पर रहता था। इस अंगुली मारने के विचित्रा अंदाज का साँगी पं. माँगेराम ने अपनी साँग का इतिहास कही जाने वाली रागनी में जिक्र नहीं किया है, इसीलिए वह रागनी साँग का अध्ूरा या भेदभावपूर्ण इतिहास कहती है। अवलोकन कीजिए स्वनिर्मित एक कली काः-
    ध्नपत सिंह आँगळी मारै, देक्खणियाँ का करै शिकार।
    सम्मोहन सा सबपै छाग्या, हाय मरगे हा-हाकार।
    नवरस की करै कविताई, भीत्यर तक के खुलज्याँ द्वार।
    आनंदधम की होवै यात्रा, स्वर लहरियाँ पै होकै सवार।
    सुध्-बुध् खोकै गोते मारैं, हालत होज्या निर्विचार।
    क्यूँ हाँगा लाकै उछलण लागरे, घुस्से बरसावैं पागल होकै।16

    कहाँ-कहाँ पर साँग किये?ः- श्री ध्नपत सिंह ने भारत ही नहीं अपितु पाकिस्तान तक अपने साँगों की ध्ूम मचाई है। भारत का शायद ही कोई राज्य होगा जिसमें उनके साँग न हुए हां। हरियाणा के अतिरिक्त पंजाब, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, जम्मु, चंडीगढ़, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, पश्चिमी बंगाल आदि राज्यों में उन्होंने खूब साँग किये।
    पुरस्कारः- जींद रियासत के नवाब ने जब उनके साँग सुने तो वे श्री ध्नपत सिंह पर इतने मेहरबान हो गये कि उन्होंने उनको आजीवन इस रियासत में निःशुल्क तथा बिना किसी सूचना या स्वीकृति के कहीं भी साँग करने की अनुमति दे दी। ध्यान रहे कि आज भी जब कहीं पर साँग करने होते है तो वहाँ के अध्किरी विशेष की अनुमति आवश्यक है। इस संबंध् में एक  जिक्र किया जाता है कि जींद रियासत का नवाब साँगों को पसंद नहीं करता था। श्री ध्नपत सिंह ने कहा कि एक बार किसी तरह मुझे उस रियासत में साँग करने दो। इसके पश्चात् मैं आप संभाल लूँगा। नवाब के महल के सामने तालाब पर साँग शुरू कर दिया गया। जब नवाब वहाँ से गुजरे तो उन्होंने आपत्ति की कि किसकी स्वीकृति से यह सब हो रहा है? मुझे यह पसंद नहीं है, अतः इसे तुरंत बंद कर दिया जाए। नवाब को श्री ध्नपत सिंह ने कुछ देर तक साँग सुनने की अनुनय विनय की। बस पिफर क्या था, नवाब उन पर इतने लट्टू हो गये तथा उपरोक्त कहीं भी साँग करने की आजीवन स्वीकृति दे दी। नवाब ने अपनी शाही दो पोशाक भी सम्मान स्वरूप श्री ध्नपत सिंह को    प्रदान की।
    इसी तरह से उत्तरप्रदेश के एक गाँव सोलदा में श्री ध्नपत सिंह साँग की रहे थे। वहाँ के नवाब प्रतिदिन उनके साँगों को दत्तचित होकर देखते व सुनने आया करते थे। उन्होंने श्री ध्नपत सिंह को ‘राय साहब’ की पदवी प्रदान की। इसके अतिरिक्त उन्होंने श्री ध्नपत सिंह को 500 एकड़ जमीन, मकान तथा अन्य सुविधओं की पेशकश की, लेकिन श्री ध्नपत सिंह ने उन्हें लेने से मना कर दिया।
    महान गायक मुकेश द्वारा पुरस्कृतः- श्री ध्नपत सिंह साँग करने के लिये मुंबई में गये हुए थे। कई दिन साँग करते हुए उनको हो चुके थे। मुकेश के व्यक्तिगत सचिव ने जब ध्नपत सिंह को साँग करते हुए देखा तो उन्होंने मुकेश से कहा कि एक गायक हरियाणा राज्य से आया हुआ है आप एक बार उसको सुनने हेतु अवश्य चलें। मुकेश उनका साँग देखने के लिये आए तथा इतने प्रभावित हो गए कि उन्होंने श्री ध्नपत सिंह को पेशकश कर डाली कि आप सप्ताह में सिर्पफ दो गीत लिख दिया करें। हम आपको प्रति महीने 7000 रुपये देंगे। इसके सिवाय आपको रहने हेतु मकान तथा गाड़ी भी दी जायेगी। लोककला साँग को समर्पित श्री ध्नपत सिंह ने इस पेशकश को अस्वीकार कर दिया तथा कहा कि मैं ऐसा नहीं कर सकता। मैं यदि अपनी लोककला साँग तथा अपने गृहराज्य हरियाणा का त्याग कर दूँगा तो मैं जी नहीं पाउँफगा। ऐसे त्यागी थे हमारे क्राँतिकारी साँगी श्री ध्नपत सिंह। चलते समय ईनाम स्वरूप मुकेश ने श्री ध्नपत सिंह को 500 रुपये प्रदान किए।17
    जब मुकेश भी आर्श्चयचकित रह गयेः- अपने व्यक्तिगत सचिव के कहने पर जब मुकेश श्री ध्नपत सिंह के साँग देखने को आये तो उन्होंने श्री ध्नपत सिंह से पूछा कि इस साँग के लेखक कौन हैं? श्री ध्नपत सिंह ने जवाब दिया कि मैं स्वयं ही हूँ। मुकेश ने पूछा कि इस साँग के निर्देशक कौन हैं? श्री ध्नपत सिंह ने जवाब दिया कि मैं स्वयं ही हूँ। इसके पश्चात् मुकेश ने साँग के नृत्य निर्देशक, डै्रस डिजायनर, मंच संचालक आदि आदि के संबंध् में पुछा। श्री ध्नपत सिंह ने मुकेश के हर प्रश्न का जवाब यही उत्तर दिया कि ‘मैं स्वयं ही हूँ।’ महान स्वर्गीय पिफल्मी गायक मुकेश यह सब देख व सुनकर अवाक से रह गये। श्री ध्नपत सिंह की गायन प्रतिभा का लोहा इस तरह से महान पिफर भी गायक मुकेश ने भी माना था।18
    जब श्री ध्नपत सिंह को प्रथम पुरस्कार मिलाः- चीन ने सन् 1962 ई. में भारत पर आक्रमण करके धेखे से कापफी जमीन पर अवैध् कब्जा कर लिया था। उस समय साँग विध को नई उँफचाईयाँ देने हेतु साँगियों के प्रयास से तथा सरकार के सहयोग से ‘हरियाणा गंर्ध्व सभा’ का गठन किया गया था। इस सभा के पाँच सदस्य थे-श्री ध्नपत सिंह, श्री माँगेराम, श्री सुलतान, श्री चंदन लाल तथा श्री रामकिशन व्यास। इन सबको श्रीमती इंदिरा गाँध्ी की तरपफ से पेशकश की गई कि कोई गीत ‘देश भक्ति’ पर लिखें। सबने सुंदर-सुंदर गीत लिखे। श्री ध्नपत सिंह की रागनी को प्रथम पुरस्कार दिया गया। वह रागनी थी :-
        पूफट तनैं बड़े-बड़े घर घाल्ले।
        बदनामी का टीका हो सै, जो तनैं सिर पै ठालै।।19
    जब श्रीमती इंदिरा गाँध्ी ने श्री ध्नपत सिंह को पुरस्कृत
कियाः- श्रीमती इंदिरा गाँध्ी ने श्री ध्नपत सिंह को उस समय पुरस्कृत किया था। जब उन्होंने एक सभा में भारत के प्रथम प्रधनमंत्रा श्री जवाहर लाल नेहरू के देहाँत के पश्चात् उन पर बनाई यह रागनी गाकर श्रोताओं व स्वयं श्रीमती इंदिरा गाँध्ी का मन मोह लिया था। वह रागनी इस तरह से हैः-
    के गुण गावाँ हम वीर जवाहर लाल का।
    नहीं है भरोसा कुछ दुश्मन काल का।। टेक ।।

    27 मई सुबह-सवेरे, खुद दर्द होया था दिल म्हं।
    इंदिरा गाँध्ी न्यूँ बोली, ल्याओ डॉक्टर पल म्हं।
    खुश्की होगी थी गळ म्हं, दर्द इसे कमाल का।। 1 ।।
    दौड़ डॉक्टर आये, दर्द चौगुना बढ़ ग्या।
    सोग म्ंह सोग सोग शरीर बीच के चक्कर म्हं चढ़ग्या।
    दो बजे सी उड़ग्या, हंस सरोवर ताल का।। 2 ।।
    भाई समझ हाय, ध्र्या शीशा पै ताज।
    आजै म्हारा देश लुट्या, सब मुल्को का राज।
    सारे राजे चाहवैं थे, आसन नेहरु जी के चाल का।। 3 ।।
    ज्यब काल नैं डाक्का गेरा, देश म्हारा लुट्या।
    ताज के उफपर बाळ द्यो, कह एक बणजारा उर्ठ्या।            ध्नपत सिंह काळ कै आग्गै, झुट्ठा घमंड ध्न माळ का।। 4 ।।

    मोहम्मद रपफी, लता मंगेशकर व श्री ध्नपत सिंहः- एक बार जिला संगरूर में महान पिफल्मी गायिका लता मंगेसर व स्वर्गीय महान पिफल्मी गायक मोहम्मद रपफी किसी गीत-संगीत सभा में भाग लेने आये थे। उस सभा में लता मंगेसकर ने ‘मेरे वतन के लोगो’ गीत गाया तथा मोहम्मद रपफी ने ‘वतन पे पिफदा’ गीत गाया। जब ध्नपत सिंह से भी कुछ गाने को कहा गया तो श्री ध्नपत सिंह ने उस सभा में दो गीत गाये थे, वे गीत थे-
    ‘पूफट तनैं बड़े-बड़े घर घाल्ले।
    बदनामी का टीका हो सै जो तनैं सिर पै ठा ले।।’
            तथा
    ‘के गुण गावों हम वीर जवाहर लाल का।
    नहीं है भरोसा कुछ दुश्मन काल का।।’

    उस सभा में स्वयं श्रीमती इंदिरा गाँध्ी भी मौजुद थी। उन्होंने         श्री ध्नपत सिंह के गीतों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। जो साँगी रपफी व लता जैसे गायक-गायिकाओं की सभा में गीत गाने हेतु आमंत्रित किया जाता हो तथा वहाँ पर भूरि-भूरि प्रशंसा पाता हो उसकी प्रशंसा करना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है।
    किसानों द्वारा सम्मानित श्री ध्नपत सिंहः- ‘काच्चे श्याम’ व ‘बड्डा श्याम’ श्री ध्नपत सिंह के साँगों के प्राण रहे थे। उनके बिना श्री     ध्नपत सिंह की साँग कला के संबंध् में सोचना भी मुश्किल है। ये दोंनो पात्रा इतनी प्रसि( उस समय पा चुके थे कि किसानों ने अपने बैलों तक के नाम भी इनके नाम पर ‘श्याम’ रख दिए थे। किसान मस्ती में झूम-झूमकर अपने बैलों को ‘बेट्टे श्याम’ कहकर पुकारते थे। इस तरह से कई वर्ष तक श्री    ध्नपत सिंह ने हरियाणा तथा हरियाणा के बाहर के किसानों के दिलों पर राज किया था।
    आशु कविः- श्री ध्नपत सिंह को छोड़ कर अन्य साँगी किसी अन्य जाति या पेशे से आकर साँगी या गायक बने थे लेकिन श्री ध्नपत सिंह ऐसे परिवार व ऐसी जाति से संबंध्ति थे जिसका खानदानी पेशा ही गायन करना तथा अन्नादि माँगकर अपनी आजीविका चलाना था। ऐसे में गायन के गुण श्री ध्नपत सिंह में जन्मजात ही थे। इके साथ ही सुरीली व उँफची आवाज तथा अथक मेहनत ने उनकी गायनशैली में सोने पर सुहागे का कार्य किया। वे आशुकवि थे। किसी भी प्रसंग पर तुरंत रागनी बना देने में उनको महारत हासिल थी। वैसे हरियाणा में एक-दो साँगियों के संबंध् में यह प्रचार बड़ी चतुराई से कया गया कि ‘मुँह बाया, राग आया’ में वे सि(हस्त थे, लेकिन यह सब सस्ता प्रचार व अंधनुयायियों द्वारा अपने अहंकार का प्रदर्शनमात्रा है। एक-दो रागनी, भजन, सवैया या दोहे की रचना करने की तो कह नहीं सकते, परंतु तथ्य यह है कि किसी भी साँगी का एक भी साँग ऐसा नहीं है जो कि ‘मुँह बाया, राग आया’ की शैली पर बनाया गया हो। श्री ध्नपत सिह भी इसके अपवाद नहीं हैं। अनेक अवसरों पर उन्होंने भी कई-कई रागनियाँ, भजन, दोहे या सवैये एकदम से अवसरानुकूल बना दिये थे लेकिन पिफर भी पूरा साँग ऐसा कोई भी नहीं है जो एकदम से साँग मंच पर खड़े-खड़े बना दिया हो। साँगी शिष्यों व प्रशंसकों को कोई सी-चापलूसी तथा अंधनुकरणी प्रवृत्ति से बचना चाहिए।
    श्री ध्नपत सिंह के साँग सहयोगी ‘काच्चे श्याम’ व ‘बड्डा श्याम’ साँग क्षेत्रा में इतने प्रसि( हो गए थे कि आज तक कोई भी उस उँफचाई को स्पर्श नहीं कर पाया है। जनमानस के दिलों पर वे राज करते थे। उनके समकालीन साँगी पं. माँगेराम को भी कहना पड़ा था :-
    ध्नपत नै एक श्याम बणाया, श्याम खट कग्या सार्याँ कै।
    पाक्का श्याम डूम का छोरा, काच्चे श्याम कुम्हाराँ कै।।21

    किसान अपने बैलों को इन नामों से पुकारने लगे थे। प्रेमी अपनी प्रेमिकाओं को इन नामों से संबोध्ति करने लगे थे। एक बार रोहतक उपायुक्त की लड़की शहर में कुछ सामान खरीदने आई थी। किसी मनचले ने उनको ‘बेट्टे श्याम’ कहकर संबोध्ति किया। लड़की ने अपने उपायुक्त पिता से इसकी शिकायत की। उपायुक्त ने कर्मचारियों से इस संबंध् में खुलासा करने को कहा। कर्मचारियों ने उपायुक्त महोदय को बताया कि एक साँगी जो कि निंदाणा गाँव का रहने वाला है, इस समय पूरे हरियाणा व हरियाणा से बाहर छाया हुआ है। साँग मंच पर उसकी तूती बोलती है। काच्चे श्याम व बड्डा श्याम उसके साँगों में कार्य करने वाले उनके साँग सहयोगी हैं। जनमानस जिस भी व्यक्ति या वस्तु को बेहद प्यार करते हैं उनको वे ‘बेट्टे श्याम’ कहकर पुकारने लगते हैं। इसीलिए आपकी लड़की को उस मनचले ने इस संबोध्न से संबोध्ति किया होगा। उपायुक्त ने तुरंत श्री ध्नपत सिंह को अपने कार्यालय में बुला लाने की आज्ञा दी। उन दिनों सरकारी कर्मचारी से जनमानस भय खाता था तथा उनको बड़ी ईज्जत देता था। पिफर उपायुक्त तो पूरे जिले का राजा होता है। जब श्री ध्नपत सिंह के पास उपायुक्त का संदेश पहुँचा तो पूरा गाँव सकते में पड़ गया तथा किसी अनहोनी की आशंका से भर गया। श्री ध्नपत सिंह साईकिल पर सवार होकर उपायुक्त कार्यालय में पहुँचे। उपायुक्त महोदय कुपित न हो तथा उनके व उनके साँगों के संबंध् में कोई गलत       धरणा न बना लें इसके निवारण हेतु उन्होंने रास्ते में ही एक रागनी का निर्माण कर दिया था, जिसमें ‘ठहरो श्याम’ शब्द पचास के लगभग बार प्रयुक्त हुआ है। इसमें ‘ठहरों’ शब्द ‘मर्यादा’ पर ठहरने हेतु विभिन्न प्रसंगों में प्रयुक्त किया गया है। जब उपायुक्त के सामने जाकर श्री ध्नपत सिंह ने यह रागनी सुनाई तो उपायुक्त ने उनके खिलापफ शिकायत को दरकिनार करते हुए उनकी कापफी प्रशंसा की तथा 500 रुपये भी पुरस्कार स्वरूप प्रदान किये।
    एक अन्य प्रसंग भी श्री ध्नपत सिंह के संबंध् में प्रचलित है। जब पं. लखमीचंद के शिष्य पं. माँगेराम तथा अन्य श्री ध्नपत सिंह के साँगों पर आपत्तियाँ उठा रहे थे, उसी क्रम में वे रागनियों में भी कुछ ऐसी कलियाँ डाल देते थे जिनसे अपमान की बू आती थी। देखिए इन पंक्तियों कोः-
        अरै त्यरा बाब्बू गया था चून माँगण,
        जमुवा गैल्याँ यारी होगी।
        रोशन गाम जाट्टी,
        अर मध्यम गाम सुनारी होगी।
        माँगेराम सिसाणे आळे आग्गै,
        तेरी रागनी खारी होगी।22
और देखियेः-
    गाया नहीं बजाया नहीं, नामी होग्या जमुवा मीर।
    सारे देश के डूम कट्ठे कर लिये, जाग्गी कोन्याँ तकदीर।
    झंडू, प्यारे, बंदू, श्यामऋ आँगिळयाँ के मारै तीर।
    बनवारी की नकल करैं, ध्नपत की पीट्टैं लकीर।
    बेरी आळी नै धेक्कण जावैं, मन म्हं मनावै पीर।23

    श्री ध्नपत सिंह ने उपरोक्त रागनी की कली ‘अरै त्यरा बाब्बू गया था चून माँगण’ के जवाब में एक कली निर्मित की जो साँग ‘रूप-बसंत’ में आती है देखिएः-
    जितणे गावणियाँ नाम्मी, नगर निंदाणा करो सलामी।
    ध्नपत सिंह के स्याहमी, सब लखमी की रागनी खाट्टी होगी।
    रोशन गाम निंदाणा होग्या, मध्यम सिरसा जाँटी होगी।24

    इस कली के संबंध् में जब पं. लखमीचंद को मालूम हुआ तो वे क्रोध्ति होकर बोले कि जब भी श्री ध्नपत सिंह मुझे मिलेंगे तो उनको पाँच बेंत मारूँगा। बाम्मणवाद ;ब्राह्मणवाद नहींद्ध का बोलबाला इस देश में कई शदियों से चल ही रहा है। ये अपने से बड़ा किसी को मानते ही नहीं हैं। वर्ण-व्यवस्था को भी ये जाति के आधर पर मानते हैं, गुण के आधर पर नहीं। जो जाति से बाम्मण नहीं है वह कैसे ज्ञान, ध्यान व शास्त्रों की बाते   कर सकता है? अज्ञानी होते हुए भी ये ज्ञान पर अपना एकाध्किर मानते हैं। पिफर श्री ध्नपत सिंह तो इनके अनुसार निम्न जाति से संबंध्ति थे, और      वह क्षण भी आया जब पं. लखमीचंद से श्री ध्नपत सिंह की भेंट हो गई।                  पं. लखमीचंद ने पूछा कि क्यों रे ध्नपत सिंह सुना है कि तुम मेरे व मेरे शिष्यों के विरु( उल्टी-सीध्ी बातें गाते पिफरते हो। श्री ध्नपत सिंह को अपनी   जाति की हैसियत का पता था तथा उन्हें यह भी मालूम था कि तालाब      में रहकर मगरमच्छ ;तथाकथित बाम्मर्णोंद्ध से बैर मोल लेना ठीक नहीं है। उन्होंने तुरंत ही रागनी की कली को बदलकर इस तरह से गाकर                 पं. लखमीचंद को सुनायाः-
    सुरदास के वीर सिपाही, तुलसीदास किसी रुसनाई।
    जमुनादास तेरी कविताई, रेशम बरगी आट्टी होगी।
    ध्नपत सिंह रागनी तेरी, हाथ बरगी लाट्ठी होगी।25
    
    इस कली को सुनकर पं. लखमीचंद अत्यंत प्रसन्न हुये। उनका सारा क्रोध् शाँत हो गया। उन्होंने श्री ध्नपत सिंह की पीठ थपथपाई तथा आशीर्वाद दिया कि ध्नपत सिंह! तुम वास्तव में महान साँगी व गायक हो। जाओ! तुम कभी भी मार नहीं खाओगे। मेरे शिष्य तो व्यर्थ में ही तुम्हारी निंदा कर रहे थे।26
    अनेक तर्जों के रचयिताः- श्री ध्नपत सिंह ने अपनी मौलिक सैकड़ों तर्जों की रचना की थी। आज के गायक व गायिकायें लोकगीतों, भजनों व रागनियों में उनकी तर्जोंं का प्रयोग तो करते हैं लेकिन उन्हें यह मालूम नहीं है कि ये तर्जें श्री ध्नपत सिंह द्वारा बनाई गई हैं। श्री ध्नपत सिंह के सुपुत्रा श्री मेनपाल ने मेरे सामने ही कई तर्जों को गाकर बताया। शायद कापफी तर्जें उनके साथ ही समाप्त हो जायेंगी। समय रहते उनको बचाने की जरूरत है। अनेकों तर्जों में से उनकी कुछ तर्जों के नाम इस प्रकार से हैं- जाओ सुसरा सास, ज्यब याद किसी की, बाहर खड़ी जनता, रस्सा-खिंचाई, अध्र छंद, जीभ पकड़, जमाना ही चोर है, सौ का जोड़, जीवनकाज आदि आदि।27
    मंच पर कुर्सी डालने का प्रचलनः- साँग के मंच पर पहले मूढ़ा डालने का प्रचलन था। श्री ध्नपत सिंह ने सर्वप्रथम मूढे की जगह कुर्सी डालने का प्रचलन शुरू किया था।
    ब्राह्मणों जैसी जीवनचर्याः- श्री ध्नपत सिंह जाति से चाहे कुछ भी रहे हां लेकिन उनकी जीवनचर्या ब्राह्मणों जैसी थी। वे लंबी चोटी रखते थे तथा जनेउफ पहनते थे। नल का पानी उन्होंने कभी भी नहीं पीया क्योंकि उसमें चमड़े का प्रयोग होता है। उनके लिये पीने का पानी पाँच कोस दूर से आता था। जब तक उनको किसी कुये या स्वच्छ तालाब का जल नहीं मिलता था वे प्यासे ही रहते थे। वे ‘बेरी वाली देवी’ के परमभक्त थे। अपने साँगों में जगह-जगह उन्होंने ‘भीमेश्वरी देवी’ को याद किया हे। देशभक्त ‘ज्यानी चोर’ की तरह उनकी आस्था ‘भीमेश्वरी देवी’ में प्रारंभ से ही थी। एक बार वे भीमेश्वरी देवी के मंदिर में पूजा-अर्चना हेतु गए थे। प्रवेश करते ही जब उन्होंने टाल बजाई तो उस हाथ की पाँचों उंगलियों में पहनी अंगुठियों में से एक अंगूठी टाल की बेल में उलझ गई। श्री ध्नपत ¯सह ने अपनी पाँचों सोने की अंगुठियाँ उसी समय देवी के मंदिर में भेंट कर दी। श्री ध्नपत सिंह ने बेरी कस्बे में एक र्ध्मशाला भी बनवाई थी जिसका आज अस्तित्व नहीं बचा है। तथाकथित उच्च जाति के लोगों ने उन द्वारा बनवाई गई र्ध्मशाला पर कब्जा करके उसके स्वरूप को बदल दिया है।28
    श्री ध्नपत सिंह को ‘दुर्गा चालीसा’ कंठस्थ थी। वे अक्सर इसे गाया करते थे।29
    देवी के मंदिर में प्रवेश के लिये दो दिन बाहर खड़े रहेः- वैदिक भारत में तो वर्णव्यवस्था गुणों पर आधरित थी ही लेकिन इस्लामी हमलावरों के भारत में प्रवेश से पहले तक भी हमारे भारत में जाति व्यवस्था कठोर    नहीं थी तथा वर्णव्यवस्था गुणों पर आधरित थी। आध्ुनिक भारत में जब    श्री ध्नपत सिंह ने तथा अन्य साँगियों ने जन्म लिया तो जाति व्यवस्था कापफी कठोर थी। वर्णव्यस्था की वैज्ञानिकता को स्वयं उच्च वर्ण के लोग भी भूल चुके थे। निम्न कही जाने वाली जाति में उत्पन्न व्यक्ति चाहे कितना ही महान क्यों न हो, उसे सदैव नीच व निम्न ही माना जाता था। स्वामी दयानंद जैसे महान क्राँतिकारी तथा समाज सुधरक ने इस भ्रष्ट व्यवस्था के विरु( कापफी संघर्ष किया था। तथाकथित इस सामंती मानसिकता के शिकार स्वयं श्री      ध्नपत सिंह भी हुए थे। बेरी कस्बे के ‘भीमेश्वरी देवी’ मंदिर में जब वे पहली बार पूजा-अर्चना के लिए गये तो पुजारियों ने उन्हें भीतर नहीं जाने दिया। श्री ध्नपत सिंह मंदिर के बाहर ही खड़े हो गये। वे लगातार दो दिन तक भूखे-प्यासे मंदिर के सामने खड़े रहे तो ही कस्बे के लोगों के दबाव व श्री ध्नपत सिंह की अचल निष्ठा के सामने ढोंगी पुजारियों को झुकना पड़ा तथा उन्हें मंदिर में प्रवेश करने दिया गया। ऐसे परमभक्त थे श्री ध्नपत सिंह साँगी जिन्हें कदम-कदम पर तथाकथित उच्च जाति के लोगों व साँगियों के भेदभाव, कट्टरता व पाखंड का शिकार होना पड़ा। लेकिन श्री ध्नपत सिंह ऐसी किसी भी बाध, भेदभाव या मूढता के सामने कभी झुके नहीं।
    साँगों पर टिकटः- श्री ध्नपत सिंह ऐसे पहले साँगी थे जिनके साँगों पर टिकट लगनी शुरू हुई थी। यह उनकी प्रसि( ही थी जिसकी वजह से उनके साँगों पर टिकट लगनी शुरू हुई थी। मुंबई में जब वे साँग करने जाते थे तो वहीं पर उनके साँगों में टिकट लेकर प्रवेश की अनुमति होती थी। आजकल तो लोगों को यदि रुपये देकर भी साँगों में खींचकर लाया जाये तो भी वे साँग देखने नहीं आयेंगे। साँगों की इस दुर्गति का जिम्मेवार कौन है? यह एक विचारणीय प्रश्न है।
    साँग की शुरूआत भेंट गाकरः- श्री ध्नपत सिंह अग्रलिखित भेंट गाकर अपने साँग की शुरूआत करते थेः-
    तेंतीस करोड़ देवताँ का री तेरे दरबार नमन होग्या।
    दुर्वासा बलिहारी माँ तेरा बेरी बास भवन होग्या।। टेक ।।

    दिव्य कमल के पूफल पर, ब्रह्मा नैं समाधि् लाई थी।
    लगा समाधि् बैठग्या, तूँ ध्रकै ध्यान मनाई थी।
    सत् की शक्ति नाम तेरा, सबतै पहल्याँ आई थी।
    पाँच तत्व पृथ्वी, जल, अग्नि, वायुऋ म्हाए आकाश पवन होग्या।।1।।
    भगत बचाये राक्षस मारे, खेताँ बीच पसार दिये।
    नहीं किसै के बसके थे, लेट आग्गै शस्त्रा हार दिये।
    मकर मरोड़ करणियाँ तनैं, माक्का स्यर तैं तार दिये।
    ध्जा, नारियल भेंट चढ़ा दी, पेफर पाठ हवन होग्या।। 2 ।।
    एक द्यन समरी उत्तानपाद नैं, उत्तर ध््रुव राजकुमार हुये।
    दशरथ नैं तूँ याद करी, हवन खंड तैं पार हुये।
    एक द्यन समरी राव सगर नैं, बेट्टे साठ हजार हुये।
    द्रुपद था ब्यना उलाद्या, तेरे समरे बेट्टे च्यार हुये।
    पहल्याँ हुई कृष्णा लड़की, पेफर एक शिखंडी दुष्टदमन होग्या।।3।।
    ज्वाला सिंह था पथरीगढ का, जिसका तेरे उपर ढेठ।
    वीर मछलदे था ल्याया, पुत्रा की ओट्टी भेंट।
    ज्वाला सिंह भेंट तैं नाट गया, मल्हा हर ही चड्ढ्या भेंट।
    जित लश्क पुफल्लाँ का वो पात्थर के समान कर्या।
    ज्वाला सिंह भेंट तैं नाट्टया दिल बेइमान कर्या।
    कह ध्नपत सिंह मलखान पहुँचग्या, उड़ै इंदर सिंह कुर्बान कर्या।
    ले कै भेंट बख्स दिया, पेफर हवन तैं बाहर गपफन होग्या।। 4 ।।

    एक और भेंट देखियेः-

    तनैं धेक्कै मुल्क तमाम, तेरा बण्या बेरी म्हं अस्थान।। टेक ।।

    दशरथ था ब्यना औलाद्या, घर म्हं तीन नारी थी।
    पंडित बेद बहुत बुज्झे, हवन की तैयारी थी।
    उड़ै करैं थे हवन कुँड-अस्नान, तूँ दे दे बाँझों नैं संतान।।31

    चंदे की विशेष जरूरत पर यह भजन गाते थेः- अध्किँशतः साँग किसी मंदिर, र्ध्मशाला, जोहड़ विद्यालय या किसी रास्ते के निर्माण हेतु ही करवाये जाते थे। चंदे व दान की महत्ता को श्री ध्नपत सिंह अपने एक प्रसि( भजन को गाकर कहते थे। ज्यों ही भेंट गाई जाती तो उसके तुरंत बाद यह भजन अवश्य ही गाया करते थे। पढिये इस सुंदर भजन कोः-
    पिफलहाल जरूरत है,
    इसे दान करणियाँ की, पिफलहाल जरूरत है।। टेक ।।

    एक था हरिश्चंद्र सा दानी, जिसकी बिकगी तीन पिरानी।
    इसे नीर भरणियाँ की, पिफलहाल जरूरत है।। 1 ।।
    एक मोरध्वज था प्यारा, जिसनैं ध्र्या कंवर पै आरा।
    इसे पार तारणियाँ की, पिफलहाल जरूरत है।। 2 ।।
    कर्ण कुँती का जाया, जिसनैं दानी नाम ध्राया।
    इसे सत् के काज करणियाँ की, पिफलहाल जरूरत है।। 3 ।।
    ध्नपत सिंह निंदाणे आळा, ताजी भजन सुणाणे आळा
    इसे छंद ध्रणियाँ की, पिफलहाल जरूरत है।। 4 ।।32

    आज भजन को आज कल भी बहुत से भजनी व साँगी बड़े भक्तिभाव से गाते हैं।
    पात्रों में पूरी तहर डूब जाते थेः- श्री ध्नपत सिंह जब भी साँग करते तो जिन पात्रों की बारी आती सबके सब साँग सहयोगी अपने-अपने पात्रों में पूरी तरह डूब जाते थे। 1948 ई. में चुलियाणा रोहज गाँव की एक घटना सुनाते हुए एक बुजुर्ग ने मुझे बताया कि बाबा के डेरे के साथ लगते जोहड़ की खुदाई हेतु साँग आया हुआ था। उस दिन श्री ध्नपत सिंह ने ‘गोपीचंद’ का साँग किया। ज्यों ही गोपीचंद संन्यास की दीक्षा ले कान पड़वाकर अन्य कनपाड़े साध्ुओं के साथ डेरे से बाहर निकला तो एक वृ( व्यक्ति एक कोने में यह सब देखकर रो रहा था। जब उससे पूछा गया कि तुम क्यों रो रहे हो, तो उसने उत्तर दिया- ‘नाश होवण लागर्या, तनैं दीखता कोन्याँ।’33 इस तरह की अभिव्यक्तियाँ अनेक साँग रसिकों को होती थी। सन् 1948 ई. में क्योंकि हिंदु-मुस्लिम दंगे हो रहे थे अतः जब श्री ध्नपत सिंह चुलियाणा रोहज गाँव में साँग करने आये तो उनके साथ सुरक्षा हेतु चार हथियार बंद युवक थे।
    धर्मिक व सामाजिक कार्यों में भागीदारीः- श्री ध्नपत सिंह क्योंकि धर्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। हरेक साँग में अपने इकलौते पुत्रा श्री मेनपाल के नाम से अवश्य ही दान करते थे। मंदिर के निर्माण हेतु यदि साँग को बुलवाया जाता तो वे अपनी कमाई का आध हिस्सा मंदिर में दान कर देते थे। हरिद्वार जाकर वे अवश्य ही गंगा में स्नान करके वहाँ पर दान करते थे। अनेक कुओं, र्ध्मशालाओं, गउफशालाओं, पाठशालाओं, विद्यालयों आदि में उन्होंने खूब दान किया तथा उनके निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
    जीवनशैलीः- श्री ध्नपत सिंह कद-काठी से हट्टे-कट्टे, माँसल करें शरीर के, रोबीले तथा सम्मोहक व्यक्तित्व के स्वामी थे। उन्हें एक बलिष्ठ शरीर अपने माता-पिता से मिला था। उनकी आवाज सुरीली, उँफची तथा जादू भरी थी। यो(ाओं के समान उनकी चाल थी। आँखें ऐसी कि देखते ही कोई भी उनकी तरपफ खिंच जाये। वे खद्दर का कुर्त्ता व धेती पहनते थे। सिर पर सदैव गाँध्ी टोपी पहने रहते थे। पैरों में जुतियाँ पहनते थे। स्वभाव से वे कट्टर गाँध्ीवादी काँग्रेसी थे। गाँध्ी जी के विचारों में उनका अटूट विश्वास था। सादा जीवन उनको बेहद पसंद था।
    जनमानस के साँगीः- श्री ध्नपत सिंह जब भी किसी गाँव में साँग करते तो उनको अंगुठी जरूर भेंट की जाती थी। उनके संबंध् में जब जिक्र चलता है तो लोग इस प्रसंग को खूब सुनाया करते हैं। साँगों से उनके पास इतनी सोने की अंगुठियाँ एकत्रा हो गई थी कि उनके घर के साथ बने 300 पफीट गहरे कुये लंबी रस्सी में अंगुठियाँ पिरोकर पानी खींचा जा सकता था। उन्होंने यह करतब कई बार करके दिखाया था।
    सर्वाध्कि ध्नी साँगीः- श्री ध्नपत सिंह ने साँग करके प्रसि( व शोहरत के साथ-साथ दौलत भी खूब कमाई थी। उनके पास कई किलो सोना अंगुठियों के रूप में एकत्रा हो गया था। उनका अपना स्वयं का ईंट-भट्ठा भी था। उनके पास अंबेसडर कार तथा बुलट मोटरसाइकिल भी थी। एक बस भी थी उनके पास। आज से 30-40 वर्ष पूर्व किसी के पास इतनी दौलत, इतना सोना, ईंट-भट्ठा, बस, मोटरसाइकिल, कार आदि का होना उनके करोड़पति होने की खबर देता है। कई गाँव वालों को उन्होंने टै्रक्टर खरीदने हेतु रुपये भी दिये थे। इस तरह की सहायता वे अक्सर दिल खोलकर करते थे। उधर लिये इस रुपये को लोग वापिस लौटा देते थे। श्री ध्नपत सिंह चाहे कितनी ही बड़ी दौलत के स्वामी हो गये हों लेकिन उन्होंने अन्न माँगने की अपनी पुश्तैनी आदत को कभी नहीं छोड़ा। कहते हैं कि वे वर्ष भर में लगभग 500 मन अन्न माँगकर एकत्रा कर लेते थे।34
    ‘मध्यम-पथ’ के अनुयायीः- श्री ध्नपत सिंह धर्मिक कट्रता से कोसों दूर थे। वे नित प्रति के जीवन में भी भगवान बु( के ‘मध्यम-पथ’ के अनुयायी थे। इस या उस अति को उन्होंने कभी भी महत्व नहीं दिया। समयानुकूल निर्णय लेने में वे सि(हस्त थे। प्रसंगानुकूल वे अपने निर्णयों के बल पर विवादों से सापफ बच जाते थे। जहाँ कहीं भी विवाद होने की आशंका हुई, अपनी सुझबुझ से उन्होंने उसे टाल दिया। समाज की जाति-व्यवस्था की वास्तविकता को वे भलि तरह से जानते थे। अनेक अवसरों पर तथाकथित उच्च जाति वालों ने उनके साथ व्यर्थ के विवाद करने की कोशिशें की लेकिन श्री ध्नपत सिंह ने अपनी सूझबूझ से सदैव ही उनको हार का मुँह दिखाया। जो सामंजस्य उन्होंने उस समय करके दिखाया वह एक महान समाज सुधरक हेतु भी ईर्ष्या का विषय हो सकता है। इतने महान साँगी थे श्री ध्नपत सिंह।
    जात-पात व उँफच नीच की प्रवृत्ति के शिकारः- साँग क्षेत्रा में ‘ब्रह्मज्ञानी’ आदि की पदवी देने का ढोंग एवं पाखंडपूर्ण प्रचलन कुछ लोगों ने करने का बेहद भट्टा प्रयास किया और अपने इस प्रयास में वे थोड़े बहुत सपफल भी रहे। ‘एक झूठ को यदि सौ बार दोहराया जाये तो वह सच लगने लगती है’, यह हिटलरी सोच जनसामान्य पर लागू होती है। लोग प्रचार से प्रभावित होकर कुछ भी मानने को विवश हो जाते हैं। महान साँगी ‘बाजे भगत’ नाई जाति का होने से इस प्रवृत्ति का शिकार हुए।35 श्री ध्नपत सिंह भी इसी प्रवृत्ति का शिकार होकर आज तक गुमनामी के अंध्ेरे में सिसकते रहे हैं। लोगों के सामने उनको लाने का यह भागीरथ प्रयास करने में मुझे अनेकों मुश्किलों का सामना करना पड़ा है। यह कहकर श्री ध्नपत सिंह को ध्ता बता दिया गया कि एक मिरासी या डूम ब्रह्मज्ञान, शास्त्रा ज्ञान, र्ध्म, नीति आदि के संबंध् में क्या जाने। जाति से उनके ज्ञान को मापकर उनकी उपेक्षा कर दी गई, जैसे कि उपरोक्त विषयों पर इन तथाकथित उच्च वर्णीय बु(ुओं का ही एकाध्किर हो। लेकिन अब श्री ध्नपत सिंह के साँग सबके सामने अपनी वास्तविकता स्वयं कहने को प्रस्तुत होंगे।
    उँफचे-उँफचे शब्दों तथा कौरे आदर्शवाद से यथार्थवाद की तरपफः- किसी भी साँगी के साँगों का अध्ययन कर लो, उनमें र्ध्म, अध्यात्म, आदर्श आदि की ही भरमार रहती है। यथार्थ की तरपफ साँगियों का ध्यान बहुत कम रहा है। वेद उपनिषद, दर्शन, पुराण, स्मृति, महाकाव्य व पौराणिक उफल-जलूल कथाओं के चक्कर में इन तथाकथित साँगियों ने जन सामान्य को ऐसे उलझाया कि वह अपने नित प्रति के जीवन को भूल ही गया तथा कौरे आदर्शवाद की मोहक भूल-भुलैया में उलझ कर रह गया। श्री ध्नपत सिंह पहले ऐसे साँगी थे जिन्होंने साँग क्षेत्रा में क्राँति करके आदर्शवाद के जाल से साँगों को निकालकर यथार्थ की भूमि पर उनको लाकर प्रस्तुत कर दिया। उनका यह योगदान साँगों में उनको ‘क्राँतिकारी साँगी’ की पदवी से विभुषित कर देता है। वर्तमान के ध्रातल पर साँगों का निर्माण करना श्री ध्नपत सिंह की साँग विध को महत्वपूर्ण देन है। शराब, कबाब व शबाब में नित प्रति रत रहने वाला कोई व्यक्ति यदि ब्रह्मज्ञान, अध्यात्म, शास्त्रा-ज्ञान, वेद-ज्ञान, अहिंसा, ब्रह्मचर्य व होश की सीख दे तो इससे अध्कि मूढता व पाखंड का कृत्य और क्या हो सकता है?
    गुरु भक्त श्री ध्नपत सिंहः- गुरु में श्री ध्नपत सिंह की श्र(ा अटूट थी। वे बार-बार कहा भी करते थे कि जिनके उफपर गुरु का हाथ है वे शिष्य कभी भी मार नहीं खाते। अपने गुरु जमुनादास के प्रति उनकी भक्ति पूर्ण थी। देखिए कुछ पंक्तियाँ गुरु भक्ति के संबंध् में :-

    जिनके गुरु कवि, शायरऋ उन चेल्याँ नै सुख भारी।        
    जै कहे, सुणे की ना मान्नै, रोहतक के पास सुनारी।
    जमुवा धेरै ध्नपत सिंह नैं, छंद परखाणे होंगे।।36

    ध्नपत सिंह समर जमुवा, सदा गुरु की कल हो।
    सि(-साधँ का रस्ता सीध, ना किसै बात म्हं बल हो।
    साध्ु का सत्संग सपफल हो और दुनियाँ दुःख भरण नै।।37

    जिगर अंध्ेरा खोज्या, ध्नपत ¯सह चरण नैं धेज्या।
    सच्चा ज्ञान गधें नैं होज्या, ऐसी नगर सुनारी देखी।
    बूढे, बाळक सीक्खे जाँ, जमवा की हुश्यारी देखी।।

    आड़ै चालकै मार दिये एक बै अपणे घर ले चाल।
    ध्नपत सिंह समर जमवा नैं, ज्ञान बतावै और सुरताल।
    समझण जोगा स्याणा सै, मेरे बालम कुछ तो करिए ख्याल।
    मत कर वो मिशाल पिया, जो कुत्ते खावैं खीर।।38

    अपने गुरु की र्ध्मपत्नी को श्री ध्नपत सिंह माँ कहकर संबोध्ति करते थे। उनकी सेवा-सुश्रूषा हेतु वे सदैव तत्पर रहते थे। उनके गुरु मूलतः एक भजनी थे। भगवद् भक्ति के भजन वे बड़े भक्तिभाव से बनाया व गाया करते थे।
    साँप्रदायिक सौहार्द के प्रतीक श्री ध्नपत सिंहः- आज का युग भौतिक प्रगति का युग है। हर तरपफ भौतिक चमक-दमक के ही दर्शन होते हैं। लेकिन इस भौतिक चमक-दमक में साँप्रदायिक सौहार्द, भाईचारा, शाँति, संतुष्टि, आपसी समझ, कृतज्ञता तथा करूणा व प्रेम आदि कतई समाप्त हो गये है। आज विकास न होकर ”ास का ही बोलबाला है। जितना ही व्यक्ति शिक्षित, वैज्ञानिक व भौतिक रूप से संपन्न हुआ है उतनी ही संप्रदायों को आधर बनाकर मारकाट, हिंसा व बदले की भावना शुरु हुई है। श्री ध्नपत सिंह इस सबके विरु( थे। वे चाहते थे कि सब संप्रदायों के अनुयायी परस्पर मिलकर रहें। देखिए ऐसी ही एक सीख की रागनी की एक कलीः-
    राम, रहीम म्हं पफर्क नहीं, ना कोये किसै तै हीणा हो सै।
    ध्नपत सिंह ओýम्, अल्लाह का एक ही रकीणा हो सै।
    मथुरा वोये, मदीणा हो सैऋ काबा वोये काशी।।39
    
    जातिगत गुण-दोष के पारखीः- किसी भी विषय को लेकर उसकी तहों को उघाड़ते हुए मूल तक चले जाना श्री ध्नपत सिंह की विशेषता थी। एक जाति के जन्मजात गुण-दोष का वर्णन पढिएः-
    चालता और छाकटा चंचल नाम सै मेरा।
    बिना होण का काम बणा द्यूँ, यो काम सै मेरा।। टेक।।
    राजा भोज तैं बत्ती हरदय ज्ञान मेरै सै।
    मौत के मुकाबले पै नाम जाण डरे सै।
    मेरी नजर के सामने दुश्मन का मान करै सै।
    सौ-सौ कोस चुगरदे, मेरा ध्यान फ्रयरै सै।
    बिगड़ी बात बणा द्यूँ, यो आराम सै मेरा।। 1 ।।
    मेरी नजर के तीर बिल्कुल तणे हुये सैं।
    दुश्मन के काळजे बिल्कुल छणे हुये सै।
    आकाश और पाताल म्हं घर बणे होये सै।
    चाँद, सूरज, तारे मेरे गिणे होये सैं।
    चालबाज का ध्ंध तो सुबह, शाम सै मेरा।। 2 ।।
    बीर, मर्द के प्यार तुड़ाकै न्यारे टाळ द्यूँ।
    उड़ते पंछी पंफसै बिछा इसा जाळ द्यूँ।
    सात समुँद्र पार की ल्या मैं बदल ख्याल द्यूँ।
    रहूँ दूर का दूर पाणी म्हं आग बाळ द्यूँ।
    समझ सकै ना रमज इसा इंतजाम सै मेरा।। 3 ।।
    सात द्वीप, नौ खंड, भवन चौदहा म्हं जाणा सै।
    सुरग, मृत, पाताल लोक म्हं मेरा ठ्यकाणा सै।
    ल्यूँ सीख गुरु पै रस्ता जिसका नाम निंदाणा सै।
    ब्याह शादी का ध्ंध तो यो काम सै मेरा।। 4 ।।40

    किसान हितैषी श्री ध्नपत सिंहः- श्री ध्नपत सिंह को छोड़कर किसी भी साँगी ने किसान प्रधन साँग की रचना नहीं की। किसानों की समस्याओं को उजागर करने में श्री ध्नपत सिंह ने अग्रणी भूमिका निभाई थी। ‘बादळ-बागी’ साँग इसका सशक्त उदाहरण है। इस साँग में राजा द्वारा या अन्य अमीरों द्वारा किसानों के शोषण, दमन व उन पर हो रहे अत्याचारों की सच्ची तस्वीर है। देखिए इस साँग की एक रागनीः-
    किसान की मुसीबत नैं जाणै सै किसान।
    लूट, खसोट मचावणियाँऋ तूँ के जाणै बेईमान।। टेक ।।

    माह, पोह के पाळे म्हं बी लाणा पाणी हो।
    दिन, रात रहे जा बंद पै कस्सी बजाणी हो।
    गिरड़ी पेफराँ, सुहागी, कई बै बाहणी हो।
    पाच्छै बीज गेर्या जा, आशा हर तैं लाणी हो।
    छोटे-छोटे पौध्े उपजैं, जमींदार की ज्यान।।1।।
    इन पौध् नैं अपणे खून की खूब खाई दे।
    उँफची-उँफची बाड़ करै और खोद खाई दे।
    म्हारे खून के कतरे के दाणे बणे दिखाई दें।
    उन दाण्याँ नैं तूँ लेज्या हम माळ उघाई दें।
    जमींदार की मौत होया करै चौगुणा लगान।।2।।
    किसान के दुश्मन गिणाउँफ, सुन्ने डाँगर ढोर।
    कतरा, मकड़ा, काब्बयर, घुग्गी, काग मचावैं शोर।
    टीड्डी, कड़का, गादड़, लोबा, सुरों तक का जोर।
    तोता सिरड़ी काटकै लेज्या, कोर चूँट ज्याँ मोर।
    गोलिये और चिड़िया चुग ज्याँ, चरज्याँ मृग मैदान।।3।।
    कहै ध्नपत सिंह तनै किसान सताए, बदमाशी पूरी सै।
    अंत को ज्वाल कहैं सैं मिलै जरूरी सै।
    म्हारा खून-पसीना बंद करकै तनैं भरी तजुरी सै।
    ल्या उन बंद्याँ नैं बाट्टूँ या जिसकी मजदूरी सै।
    तूँ खटरस, मिठरस, शराब, कबाब खा, भूक्खा मरै जिहान।।4।।41

    बारहमासा की परंपरा का निर्वहनः- संस्कृत, हिंदी व अन्य भाषाओं में ‘बारहमासा’ लिखने की परंपरा रही है। लोकगीतों में भी बारहमासा की परंपरा विद्यमान रही है। साँग साहित्य पर दृष्टि डालने से यह मालूम होता है कि बाजे भगत तथा उनके गुरुओं ने इस परंपरा को अपने साँगों में निभाया है। पं. लंखमीचंद ने इसका वर्णन नहीं किया है तथा इनके किसी शिष्य ने भी ‘बारहमासा’ का वर्णन नहीं किया है। श्री ध्नपत सिंह द्वारा रचित ‘बारहमासा’ वर्णन की एक झलक देखियेः-

    मेरा जोबन, तन, मन बिघ्न करै, कुछ जतन बणा मेरी सास।
    दिन-रैन चैन नहीं पिया बिन, छः ट्टत बारह मास।।टेक।।

    चैत चाहता चित्त चोर को चले गये चतर सुजान।
    चित्त के मिले ना चौध्री हुई चिंता म्हं गलतान।
    चंदा दूर चकोर चकूर म्हं क्यूकर जा असमान।
    चक चाँद अचानक आण चढ्या हुइ्र चमक पै कुरबान।
    जिसको चैत चंचल चाहता चल ले चल पिया के पास।।1।।
    बसाख म्हं बसणा मुश्किल हो टाळे नहीं टळै।
    बसाख म्हं बीबी बालम मिलकै नहाण चलै।
    बसाख म्हं भारी भ्रम हुया जो बालम बिन नहीं जळै।
    हम सारी मुरझा गई और पुफलवाड़ी पूफल खिलै।    
    बसाख म्हं भंवरा गुँज रह्या हो सख्त पिया की ख्यास।।42

    इस तरह से श्री ध्नपत सिंह लोकसाहित्य की साँग विध के ‘महाकवि’ कहलाने के अध्किरी हैं। बारहमासा के माध्यम से सोलह रानियाँ गोपीचंद के प्रति अपने प्रेम की अभिव्यक्ति करती हैं। एक नवयौवना नारी की प्रेम में जो-जो दशायें शास्त्राय व वास्तविक रूप से हो सकती हैं उन सबका वर्णन इस ‘बारहमासा’ में श्री ध्नपत सिंह ने पूरे अध्किर, पूरी योग्यता व पूर्ण समर्पण से किया है। ध्न्य हैं ऐेसे लोककवि श्री बाजे भगत व श्री ध्नपत सिंह जिन्होने नारी की विरहपीड़ा को इतने सशक्त रूप से अपने ‘बारहमासा’ वर्णन में स्थान देकर उनका सम्मान किया है। सबसे अद्भुत बात यह है कि कहीं भी इस ‘बारहमासा’ के वर्णन में अश्लीलता, पूफहड़पन या उन्मुक्तता की झलक नहीं मिलती है। इस कसौटी पर श्री बाजे भगत तथा श्री ध्नपत सिंह सर्वाध्कि सपफल साँगी कहे जा सकते हैं।
    प्रेम के कविः- प्रेम के नाम पर आजकल जो भौंडापन, पैफशन, शारीरिक आकर्षण, दमित कामुकता तथा सैक्स का नंगा नाच चल रहा है-यह सब प्रेम तो किसी भी कोण से नहीं है। पिफल्मों में ही ऐसा हो, ऐसी बात नहीं है अपितु पहले के साँगियों के समय तो ये पिफल्में इतनी थी भी नहीं तथा सामान्यजन इन्हें देखता भी नहीं था। पिफर भी कई साँगियों ने प्रेम के नाम पर जो अश्लीलता, मर्यादाहीनता तथा बेशर्मी सामान्य जनता को परोसी है उससे हमारे गाँव के लोग पिफल्मों की अनुपस्थिति में भी खूब बिगड़े हैं तथा उनका खूब चारित्रिक पतन हुआ हैं। ऐसी दशा में श्री बाजे भगत तथा श्री ध्नपत सिंह साँगियों के सामने एक आदर्श हैं। इन्होंने जनता का खूब मनोरंजन किया तथा सामाजिक दायित्व भी खूब निभाया। श्री ध्नपत सिंह ने प्रेमी व प्रेमिकाओं की भावनाओं को सही रूप में समझा तथा सुघड़, श्लील व सदाचार की भाषा में उनको अभिव्यक्ति दी। देखिए उनकी प्रेम के संबंध् में एक रागनीः-
    कलम घिसे और दवात सुकज्या हरपफ लिखणियाँ थक ले।
    रै मेरी इसी पढ़ाई नैं कौण कौण लिखणियाँ ल्यख ले।।टेक।।

    इतणै भूक्खा मरणा हो इतणै वा झाल मिलै ना।
    गुमसुम रहैगा बंदा इतणै ख्याल म्हं ख्याल मिलै ना।
    ज्यब तक सागर ताल मिलै ना, बता हंस कड़े तैं छ्यक ले।।1।।
    इश्क बिमारी हो खोट्टी मरणे म्हं कसर रहै ना।
    इसा बहम का नाग बताया लड़ज्या वो निसर करै ना।
    दवा, इंजैक्सन असर करै ना, ज्यब गुप्त गुमड़ा पक ले।।2।।
    चोर, जार, बदमाश, उफत मनैं, दुनियाँ कहै लुँगाड़ा।
    जीवै ना मरै रहै तड़पता, जिकै लाग्गै नयन दुगाड़ा।
    बहम का बर्तन इसा उघाड़ा, कौण ढकणियाँ ढक ले।।3।।
    एक कातिल, एक कतल करावै दोनों म्हं र्ध्म करकै।
    ध्नपत सिंह कहे जा साची, साची म्हं शर्म करकै।
    कर्म के आग्गै भरम करकै चाहे जमाना बक ले।।4।।43

    नारी गरिमा के रक्षकः- सनातन आर्य वैदिक ¯हदु संस्कृति में नारी को देवी का सम्मान प्रदान किया गया है। नारी की शारीरिक बनावट, उसकी भावुकता प्रधनता तथा पुरुष द्वारा अपनी कमजोरियों पर पर्दा डालने की प्रवृत्ति के कारण उसने नारी को तुच्छ, निम्न, पुरुष के पतन का कारण, गुलाम, पैरों की जुत्ती, कामपिपासा को शाँत करने वाली, पशु समान, पिटाई से मानने वाली तथा खोई के नीचे का घास मानना शुरू कर दिया। कई प्रसि( साँगियों ने भारतीय संस्कृति की सारी मर्यादाओं को तहस-नहस करके नारी के मान-सम्मान का खूब मजाक उड़ाया। लेकिन श्री ध्नपत सिंह ने इस संबंध् में मर्यादाओं का ख्याल रखा है तथा नारी गरिमा की रक्षा हेतु अनेक स्थलों पर सशक्त भाषा में अपने विचारों को अभिव्यक्त किया है। अवलोकन कीजिए अग्रलिखित पंक्तियों काः-
    बिगड़ा काम समारण म्हं खुबात हो लुगाई की।
    जो डर नैं दूर भगादे करड़ी जात हो लुगाई की।
    सतेवान लक्कड़हारे गैल्याँ सुणी हो सावित्रा ब्याही।
    बारहा साल तक जीवैगा न्यूँ नारद जी नै उम्र बताई।    
    बारहा साल खत्म होणे पै चढ़गे जोड़ ताप निवाई।
    र्ध्मराज बोल्या सावित्रा तेरा पति मरण का कोन्याँ।।1।।
    मैले-कुचैले कपड़े नैं सापफ करता साबुन नीर।
    मंजाई, सपफाई तै सापफ होज्या तमचा, तीर।
    मर्द मैला हो तो उसनैं सापफ कर सकती है बीर।।4।।44

    गरीब, दरिद्र व असहायों की आवाज को बुलंद कियाः- अनुभव करके किसी बात को कहना तथा हवाई किले बनाने में जमीन-आसमान का अंतर होता है। पफाईव स्टार होटलों का जीवन जीने वाले या वैभव-विलास में डूबे रहने वाले लोग कैसे गरीब व असहाय लोगों की समस्याओं व अभावों से होने वाली तकलीपफों को समझेंगे? कवि, लेखक व साहित्यकार भी     वही सर्वाध्कि पसंद किए जाते हैं जो सामान्यजन की समस्याओं को स्वयं अनुभव करके लेखन के रूप में अपनी अभिव्यकित करते हैं। प्रेमचंद को बेशक नोबल पुरस्कार या बुकर आदि पुरस्कार न मिले हों लेकिन पिफर भी वे सैकड़ों नोबल पुरस्कारों व बुकर पुरस्कारों पर भारी पड़ते हैं। श्री ध्नपत सिंह ने गरीबी, अभाव व जातिगत अपमानों को स्वयं जाना था, उन्हें जीया था तथा उनके कड़वे घूँटों को पीया था। ऐसा साँगी जब इन पर बोलेगा तो आवाज उसके हृदय से आयेगी। पढ़िये एक ऐसी ही उनकी रागनी जिसमें गरीब व अभावग्रस्त व्यक्ति की पीड़ा को आवाज दी गई हैः-
    गरीब आदमी बिन पैसे बिन म्हारा गुजारा हो ज्यागा।
    म्हारी दुनियाँ म्हं कोये नहीं एक तेरा सहारा हो ज्यागा।।टेक।।
    हम चार प्राणी कई रोज के भूक्खे और तिसाये साँ।
    जो कुछ बीती हम जाणा बहुत घणे दुःख पाये साँ।
    तमनैं पूरी करणी होगी आशा मन म्हं लाये साँ।
    मत ठुकराओ, ध्मकाओं हम थारी शरण म्हं आये साँ।
    ज्यदगी भर ना उतरै अहसान म्हारे पै, इतणा भार्या हो ज्यागा।।1।।
    
    टोट्टे आळे कै काट्टा लागज्या, लोग कहैं न्यूयें उफत पिफरै।
    ताप चढो चाहे कोये बिमारी, कहे-सुणे की कोन्याँ जरै।
    ध्न आळे कै खाँसी होज्या, गाम-गुहाँड तैं ढूँढ भरै।
    बैद, डॉक्टर ल्या छोड्डैऋ देश कुशामंद आण करै।
    ध्न आळै कै बारणै, कट्ठा भाईचारा हो ज्यागा।।2।।
    
    सारी दुनियाँ जाणै सै जो होत्ते टोट्टे के नाम।
    कोये कहै लुच्चा, गुँडा, कोये कहै बेईमान राम।
    उनके नाम अलग होते, जिनकै धेरै हो सैं दाम।
    कोये कहे शाह जगतपति सै, कोये कहै परसु, परसा, परसराम।
    ध्न की मार खेट्टी हो, दुश्मन बी प्यारा हो ज्यागा।।3।।

    बिन पैस्याँ के नौकर साँ, काम जरूरी कर द्याँगे।
    सौ-सौ दियो उल्हाणे, जै कोये कार अध्ूरी कर द्याँगे।
    चाल-चलण के सापफ सही साँ, थारी महसूरी कर द्याँगे।
    हम च्यार प्राणियाँ का पेट भरैं, हम इसी मजूरी कर द्याँगे।
    ध्नपत सिंह समर जमवा, न्यूँ निस्तारा हो ज्यागा।।4।।45

    कौन किस बिन सुन्नाः- इस तरह की रागनियाँ श्री बाजे भगत, पं. लखमीचंद तथा पं. माँगेराम आदि ने भी बनाई हैं लेकिन जो बात श्री ध्नपत सिंह की अग्रलिखित पंक्तियों में है, वह अन्यत दुर्लभ है। शब्द संयोजन, भाषाप्रवाह, उच्चारण-सहजता, सपाट शब्दों का प्रयोग तथा जनसामान्य पर पड़ने वाले प्रभाव की दृष्टि से इन पंक्तियों का कोई मुकाबला नहीं हैः-
    बणी सगाई बात हटाये, या काट एक सी हो सै।
    ढुका पै बनड़ा, ब्याह म्हं भातीऋ बाट एक सी हो सै।।टेक।।
    राजा और नवाब, बादशाहऋ हाथी बिन सून्ना।
    जीम्मण, काज, द्यसोट्टणऋ गोती, नाती बिन सून्ना।
    शहर, नगर, घर, गाम कहवैंऋ पंचायती बिन सून्ना।
    जिसा दीपक ब्यन मंदिर सून्ना, इसा ब्याह भाती बिन सून्ना।
    कहै ध्नपत सिंह बिना मसाले, चाट एक सी हो सै।।4।।46

    साँगी पंचकः- साँग का इतिहास लिखने वालों ने सदैव श्री ध्नपत सिंह के साथ भेदभाव किया है। उन्होंने एक तरह से श्री ध्नपत सिंह को मृत प्रायः करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 52 साँगों के रचयिता ;जिनमें से 42 उपलब्ध् हैंद्ध तथा लगातार 40-42 वर्ष तक निर्विघ्न साँग करने के बावजूद साँग इतिहासकारों ने प्रसि( साँगियों में उनकी गिनती नहीं की। यह सब एक षड्यंत्रा के तहत ही किया गया है। साँगी पंचक के अंतर्गत श्री हरदेवा स्वामी श्री बाजे भगत, श्री ध्नपत सिंह, श्री लखमीचंद तथा श्री माँगेराम की गिनती की जा सकती है।

    बाम्मणवादी अहम् पर चोंटः- साँगी पं. माँगेराम की लड़की के विवाह में सभी साँगियों को बुलाया गया था। श्री ध्नपत सिंह भी वहाँ पर गये हुये थे। वहाँ पं. माँगेराम ने श्री ध्नपत सिंह को एक तरपफ बुलाकर कहा कि आप सिर्पफ पाँच दस रुपये ही कन्यादान में डालना क्योंकि आप द्वारा अध्कि रुपये कन्यादान में देना हमारा अपमान होगा। इस पर श्री ध्नपत सिंह ने पं. माँगेराम को बहुत ध्मकाया तथा कहा कि मेरी जैसी इच्छा होगी मैं वैसा ही करूँगा। आपने हमें लड़की के विवाह में आमंत्रित किया है या हमारा अपमान करने को बुलाया है?े पं. माँगेराम को कोई जवाब नहीं सूझा। श्री ध्नपत सिंह ने वहाँ पर 1100 रुपये कन्यादान में दिये थे। इतना अध्कि कन्यादान दिये जाने से पं. माँगेराम के अहम् को चोंट लगी तथा ज्यों ही श्री ध्नपत सिंह अपने घर जाने लगे तो पं. माँगेराम ने उनको 1100 रुपये तथा अन्य सामान देकर श्री ध्नपत सिंह को छोटा सि( करने की कोशिश की। श्री ध्नपत सिंह ने यह सब लेने से मना कर दिया तथा अपने घर वापिस लौट आये।47
    जब पं. माँगेराम को लोगों ने नहीं सुनाः- बात उस समय की है जब श्री ध्नपत सिंह के लड़के साँगी श्री मेनपाल का विवाह था। इस अवसर पर सभी प्रसि( साँगियों को बुलाया गया था। जब पं. माँगेराम साँग करने को खड़े हुये तो जनता ने बार-बार केवल श्री ध्नपत सिंह को ही सुनने की जिद्द की। बार-बार के प्रयासों के बावजूद भी जब जनता नहीं मानी तो हारकर पं. माँगेराम ने श्री ध्नपत ¯सह को कहा कि आप ही इस जनसमूह को शाँत व संतुष्ट कर सकते हैं। यह सब मेरे वश की बात नहीं है। आप आईये तथा अपने साँग के जादू से इस विशाल जनसमूह को तृप्त कीजिये। वहाँ से जाते समय पं. माँगेराम यह कहना नहीं भूले कि ध्नपत सिंह! वास्तव में ही तुम मुझसे महान साँगी हो।48
    साँगी सुलतान व साँगी खीमा के वर्चस्व को चुनौतीः- श्री ओमप्रकाश, ग्राम-चुलियाणा रोहज के विवाह का अवसर था। गाँव से उनका रिश्ता किसी कारणवश टूट गया था। आनन-पफानन में दूसरी लड़की उसी गाँव में तलाश करके विवाह की योजना बना ली गई। बारातों में पहले साँग को ले जाने का प्रचलन था, अतः श्री ध्नपत ¯सह को साँग करने हेतु बुलवा लिया गया। जब बारात दसोरखेड़ी गाँव में पहुँची तथा श्री ध्नपत सिंह साँग करने लगे तो गाँव के लोगों ने चेतावनी दी कि हमारे इलाके में केवल सुलतान ;पं. लखमीचंद के शिष्यद्ध तथा खीमा ;श्री बाजे भगत के शिष्यद्ध के ही साँग होते हैं। उनके सिवाय हम किसी के भी साँग सुनना पसंद नहीं करते। इस पर श्री ध्नपत सिंह ने गाँव वासियों से प्रार्थना कि वे एक बार उन्हें सुनकर तो देखें। यदि मैंने श्रोताओं व दर्शकों को अपने बैइने के स्थान पर ही पेशाब करने को विवश नहीं कर दिया तो आप मुझे आकर कहना। श्री ध्नपत सिंह ने साँय 9 बजे साँग शुरू किया था तथा सुबह हो गई। सूर्य भगवान निकल आये लेकिन श्रोता व दर्शन अपनी-अपनी जगहों पर बैठे-बैठे साँग का आनंद लेते रहे। किसी की क्या मजाल कि कोई भी अपनी जगह से उठकर कहीं ईध्र-उध्र चला जाये। सुबह जब साँग समाप्त हुआ तथा गउफ माता की जयकार के साथ इसकी समाप्ति का उद्घोष किया गया तो कोई भी श्रोता व दर्शक अपनी जगह से हिला भी नहीं। लोगों को अभी तक यह समझ में नहीं आया था कि साँग समाप्त हो चुका है। श्री ध्नपत सिंह ने अपनी साँग कला के सम्मोहन से उन्हें ऐसा सम्मोहित किया कि श्रोता व दर्शक एक मिनट भर के लिये भी अपने स्थान से नहीं उठे। साँग समाप्त होने पर भी सभी पहले वाली मुद्रा में बैठे रहे तथा साँग समाप्त होने के घंटे भर बाद भी कई लोग मंच के चारों तरपफ ही झूमते हुये नजर आये।49
    जब श्री ध्नपत ¯सह को प्रथम पुरस्कार मिलाः- पं. लखमीचंद के शिष्य, साँगी सुलतान ने रोहद गाँवमें सभी साँगियों को बुलवाया था। वहाँ पर सभी साँगियों को प्रतियोगिता हेतु बुलवाया गया था। सभी साँगियों ने अपनी साँग कला का प्रदर्शन किया। अतं में श्री ध्नपत सिंह को प्रथम पुरस्कार प्रदान किया गया। निर्णायक के रूप में जिला उपायुक्त व पुलिस अध्ीक्षक साँग स्थल पर मौजुद थे। श्री ध्नपत ¯सह ने पं. माँगेराम को बताया कि  हमारे गाँव में दो ही घर मिलेंगे। एक मेरी ¯नदा करता मिलेगा तथा दूसरा    दाणे माँगता हुआ। आपके घर बहुत अध्कि हैं अतः आपको बड़ा मान लिया जाता है।50
    एक बार की बात है कि पं. माँगेराम श्री ध्नपत सिंह समेत कई प्रसि( साँगियों के साथ बैठे थे। पं. माँगेराम ने तुरंत पं. लखमीचंद की प्रशंसा करनी शुरू कर दी। उन्होंने कहा कि पं. लखमीचंद ने बहुत सी बातों की पहले ही भविष्यवाणी कर दी थी तथा समाज के संबंध् में भी उनकी रागनियों में कही गई बातें तीनों कालों में सत्य हैं। उनकी बातों को कोई भी गलत सि( नहीं कर सकता तथा न ही आज ऐसा कर पाया। ऐसे प्रशंसा के पुल बाँध्ने पर श्री ध्नपत सिंह ने पं. माँगेराम से कोई ऐसा प्रसंग सुनाने को कहा जो तीनों कालों में सत्य हो तथा जिसे पं. लखमीचंद ने अपनी रागनियों में कहा हो। पं. माँगेराम ने अग्रलिखित पंक्तियाँ कही-
        कायर पशु चतुर आदमी मोट्टा ना रहणे का।
        जिसके घराँ पतिभर्त्ता नारी, उड़ै टोट्टा ना रहणे का।।
    इस पर श्री ध्नपत सिंह ने इन पंक्तियों को गलत सि( करते हुये तुरंत यह उदाहरण भारतीय संस्कृति से ही देकर पं. माँगेराम को निरूत्तर कर दिया-
        शिवजी के घराँ नाँदी नारा, वो मोट्टा क्यूँ था।
        नळके घराँ पतिभर्त्ता दमयंती, उसकै टोट्टा क्यूँ था।।

    अपने गुरु लखमीचंद की बात की काट इस तरह से सुनकर पं. माँगेराम अवाक रह गये तथा उन्हें कुछ सुझते नहीं बना। आगे श्री ध्नपत सिंह ने कहा कि तुम उफच्ची जाति वाले कुछ भी कहो, लोग उसे सत्य मान लेते हैं। लेकिन जरूरी नहीं कि वह वास्तव में सत्य हो ही। तुम तो प्रचार के बल से तथा बाम्मणवाद की ध्सड़की से ही अपनी बातों को सत्य सि( करवाने को लगे रहते हो। हम ठहरे गरीब आदमी।51
    लोकोक्तियों के बादशाहः- हरियाणा राज्य के लोक-व्यवहार में लोकोक्तियों का प्रयोग व प्रचलन सर्वाध्कि है। बात-बात में लोकोक्तियों को उद्ध्ृत करके अपनी बात करे दूसरों को समझाने में यहाँ के निवासी प्रवीण हैं। जो बात घंटों वाद-विवाद करके नहीं समझायी जा सकती, वही बात एक लोकोक्ति के माध्यम से तुरंत समझ में आ जाती हैं। आकार में संक्षिप्त, प्रभाव में तीर की तरह, अर्थ मे गूढ तथा याद रखने में सहज शब्दों का वह जोड़ ‘लोकोक्ति’ बड़े-बूढों का तो एक तरह से ब्रह्मास्त्रा ही है। श्री ध्नपत सिंह ने अपने साँगों में हजारों लोकोक्तियों का प्रयोग किया है। सब की सब बेजोड़, प्रभावी, गूढार्थ लिए हुए तथा विद्वतापूर्ण हैं। यहाँ पर उन द्वारा प्रयुक्त मात्रा कुछ ही लोकोक्तियाँ आटे में नमक समान उद्ध्ृत की जा रही हैं, पढ़िये उनकी चमत्कृत कर देने वाली लोकोक्तियों कोः-
1.  कहै ध्नपत सिंह मिशाल बड़्याँ की कदे झूठ ना पाती।
2.  सत छोड्डे पत जाती।    
3.  ध्न की मार खोट्टी हो।
4.  प्यारे मित्रा नौकर तैं ना आच्छी हो बेईमानी।
5.  कोये सदा रह्या ना तंग।
6.  मात-पिता बिना बाळक इसा, जणूँ घर सूना हो छात बिना।
7.  वो माणस मान्याँ जा जो करै साच बता आई।
8.  बुरा नतीजा हो जो जबरदस्ती करैगा।
9.  सेवा करण नैं बेट्टा यो पहला सुख हो सै।
10. गृहस्थ आश्रम म्हं गृहस्थी का बेटा ए सुख हो सै।
11. होणहारी होणी कै आग्गै कोये दे सकता तर्क नहीं।
12. जर, जोरू, जमीन पै झगड़ा ये किसनैं त्यागी सैं।
13. बिन संतान कहवैं सै सुरग का वास नहीं होता।
14. पूत तैं प्यारी होया करै से प्रजा राजा नैं।
15. जड़ै भाव, न्याय-इंसान नहीं, ना वो भूप काम का।
16. जिसके आवैं रोज उल्हाणे के करणा इसे लाल का।
17. सि(-साधँ का सीध रस्ता।
18. ध्न, दौलत अर कुटंब तैं ज्यान प्यारी सै।
19. घड़ी टळै बरसाँ जीवै टेम टाळ दे।
20. गृहस्थ आश्रम सबतैं उँफचा वेद, पुराण कहवैं सैं।
21. चोरी, जारी, हठर्ध्मी यो काळ हो रजपूत का।
22. पतिव्रता नैं पति जगत म्हं धम सै।
23. दुनियाँ है दुरंगी
24. कदे गमी, कदे तंगऋ हो सै समो-समो के रंग।
25. नुगरे होया करैं बदनाम।
26. मासूकाँ कै आग्गै सदा तैं आशिक करैं सलाम।
27. उनकी लाज घटती नहीं जो ईश्वर के लौ लीन।
28. हीणे की लुगाई हो सै भाभी गाम की।
29. जिसका र्ध्म बण्या रहवै साब्बत ना किसे बात की खामी।
30. जिस बाळक की माता मरज्या, उसकी रे-रे माट्टी होगी।
31. ध्नपत सिंह कदे ना अपणे, रंडी और नचार हो सैं।
32. सगे, अश्नाई, मित्रा, प्यारे कोए बिरलाए लवै लगै डर म्हं।
33. मतलब म्हं बणज्याँ सैं प्यारे।
34. घरबार बसाणा यो हो सै काम लुगाई का।
35. पति की सेवक हो पत्नी यो र्ध्म बीरबानी का।
36. नरक हो जिस घर म्हं बीर स्वर्ग का करदे द्वारा।
37. पति नरक म्हं रहता बिना लगाम लुगाई का।
38. ब्रह्म, जीव की साथ लपेटा माया का।
39. पहला सुख हो बीर नैं म्यलै मर्द हाण का।
40. वो माणस ना किसै काम का जो कहकै बात का ध्ेला कर दे।
41. जो डर नैं दू भगादे वा करड़ी जात लुगाई की।
42. मर्द म्हं मैल हो तो उसनैं सापफ कर सकती है बीर।
43. एकदम तार्याँ तैं ना उतरै बिच्छू, साँप, मरद का जहर।
44. करद, कटारी का घा भरज्या, बोली का ना जख्म भरै।
45. ब्याहाँ पाच्छै पत्नी का आध सीर नहीं।
46. जो र्ध्म, कर्म नैं जाणै जगत् म्हं वो बदनाम नहीं हो।
47. वो प्यारा मान्या जा जो प्यार पै मिट जावै।
48. दुनियाँ म्हं एक सार बताए तीर, तमच्चा, ताना।
49. मूँज, गुलाम जगत म्हं हो सै यार जूत का।
50. बुजदिल को दोनों जहाँ म्हं, होती जगह मयस्सर नहीं।
51. चसती हुई जवानी म्हं रात कटै ना दो बिन।
52. करै खुशामद कौण दुनियाँ म्हं गरजी बिना।
53. जो ब्याही नैं ध्मकावै वो भरथार किसै काम का ना।
54. टोक्याँ पाच्छै नहीं रूक्या करै रजपूत, सिंह और नाग।
55. लोभ बीच हो दुनियाँ म्हं छोड्डै शर्म नहीं।
56. जीव अमर मान्याँ दुनियाँ म्हं।
57. बोली का हो जख्म ज्यगर म्हं और इसा मर्ज ना।
58. या काया बिन तकदीर हो सून्नी।
59. मात, पिता नैं बेट्टा प्यारा सास्सू नैं जमाई हो।
60. तखड़ी तोले बिना, खोले बोल बिना कर सकता है कौन विचार।
61. जो सच्चे प्यारे हों सै वो कदे डर्या नहीं करते।
62. के जीणा उस बीर का जिसकै म्हं ना ब्याहा।
63. आबरू का ध्न हो सै।
64. जोर, जुआ, जामनी और पराई नार। इन च्यार्आँ नैं छोड़ दे पेफर क्याँह         की तकरार।।
65. बीर पराई तकणे आळा सबतैं भुँडा जार।
66. बिन पंचाती झगड़े नैं रोक ना सकै।
67. सब क्याँहे तैं जरूरत ज्यादा हो सै बीर नैं जरूरत वर की।
68. चढ़ी जवानी पिया पास ना बीर जीवती मरी रहवै।
69. दुनियाँ के म्हाँ बड़ा बताया पगड़ी बदला यार।
70. दुनियाँ के म्हाँ के जीणा ज्यब खास बिगड़ प्यारा जा।
71. बेमतलब की यारी ना।
72. राम, रहीम म्हं पफर्क नहीं।
73. रो, दाब, धि्ंगताने तैं के साज्झे होया करैं।
74. वोहे पड़ै काटणे माणस जो जिसे बोज्या।
75. जिसकी बेट्टी इसी दुखी वा क्यूकर जीवै मात।
76. माँ बिन बेट्टी इसी जगत म्हं, जिसा बाग बिन माळी।
77. कौण शख्स सुख पाया जिसनैं बिना खता सताई बीर।
78. समो ल्यकड़ज्या हाथ तैं वो पेफर नहीं आणी।
79. मोह, ममता के जाळ म्हं पंफसे मूढ और गुणियाँ।
80. बेमतलब कोये यार बणै ना या दुनियाँ देखी-भाळी।
81. दिल दरिया ज्यब चढे जोर भूळ रूकै ना रोक्के।
82. कह ध्नपत सिंह ज्यब जी म्यलज्या पेफर कौण पूछता जात।
83. जो काम बखत पै करदे उसनैं प्यारा कह्या करैं।
84. वर बराबर का चाहिये।
85. पत्थर तैं बी करड़ी हो सै गरीब माणस की छाती।
86. परदेशी की प्रीत इसी जिसा औस का पाणी।
87. मोहब्बत ना पफर्क समझती गरीब चाहे अमीर हो।
88. सिंहणी का हो एक शेर प्रतिव्रता नैं एक पति।
89. सीप अर मोती पाणी के म्हं गळ्या नहीं करते।
    मुर्दे जळते देखे काँध्यि जळ्या नहीं करते।।
90. नहीं साँच के आँच।
91. दगा किसै का सगा नहीं।
92. किसै गरीब लुगाई नैं बेट्टी की मात बणाईये ना।
93. वकील, एस.डी.एम., जज, डी.सी. का पावै सगा कंगाल नहीं।
94. पहलवान, अश्नाई, औरत जोड़ी के आच्छे हो सैं।
95. बीर, मरद दुनियाँ के म्हाँ ज्यंदगी भर के दो साथी हो।
96. बीर तैं सीर होया करै तीज त्यौहार दुनियाँ म्हं।
97. भाज्जै सो पड़ैगा।
98. कर्म ल्यख्या हुआ मिलता।
99. मूँज, गुलाम मानते प्यट कै ध्ुर का दस्तूर सै।
100. एक की दवा दो हो सै दो की चार दवाई।
101. जड़ै आदर ना बटेउफ का उड़ै हारी सुसराड़ की।
102. घणी खुशी होया करै सै सास्सू-सुसरा देख जमाई।
103. जो असली सगा हुया करै वो कदे ना समझै गैर।
104. जिसका शरीपफ पकड़ ले हाथ ज्यंदगी भर ना न्यारा हो।
105. जो पिया की प्यारी वा मौज करै सुसराड़ म्हं।
106. बिना बाप के बेट्टे नैं हो सै कष्ट अपारा।
107. कुणबे का ईंचार्ज बणना माँ मोटी बिमारी भाई।
108. इतणै माँ-बाबू जीवैं भाई इतणै छोरा नाम रहै।
109. माँ मान्नी जा जग म्हं धम।
110. पूफल तैं नाजुक प्रेम हो घणी सभाळ का।
111. होकम हो नाक चढावै वो नमकहराम कह्या जा सै।
112. बेट्टे, चेले, नौक्कर का अजमाइये बेरा पाट्टै सै।
113. वोहे माणस मान्याँ जा सै जो असली बात नैं जाणै।
114. सदा रहवै र्ध्म की जीत।
115. मौत का बोझ रोज सिर रहता आज नहीं तो काल।
116. बिना गुरु के ज्ञान बिना गये बड़े महारथी हार।
117. के ल्याया और खाली जा कोये ना जग म्हं ध्नवान हुआ।
118. आवागौण गौण जगत् कै लाग्गी।
119. उसका ठाठ ठीक मान्याँ जिसनैं पढ सतगुरु का ज्ञान हुआ।
120. पैदा सोए नपेद।
121. काम कै नहीं लगाम।
122. सत् के साँग रहे ना।
123. राजपाठ, ध्न, दौलत की आक कैसी जड़ हो सै।
124. गया बखत पेफर ना थ्यावै।
125. भूखे, जोगी, भिखारी की हुया करै राज परीक्षा।
126. जो साध्ु करते हों बेईमाना, ना उनका जोगी नाम।
127. मरद हो खुश बीर दर्शन।
128. खळ और खाँड जगत् के म्हाँ बिकी ना एक भा।
129. इस जगत् म्हं भगवा इसा कोये दुजा बाणा कोन्याँ।
130. ढळती पिफरती होया करै सै मालिक की माया।
131. आशिक का उफट-मटीला कदे होया ना पफाद्या।
132. पड़तेएं चकनाचूर आशिकी बाँस समझिये नर का।
133. सबका राम रूखाळा।
134. ठेस लागते पूफट्टै आशिकी होता कच्चा मटका।
135. माणस की के पार बसावै।
136. आशिकी के आग्गै तो डरता सिंह बब्बर नहीं सै।
137. उसनैं कितके दरी गलीचे, जिसकै इश्क पुकार आज्या।
138. ध्न, दौलत अर कुटंब, ढूँढ तैं ज्यान घणी प्यारी।
139. अपणे प्यारे नैं दुनियाँ म्हं कोये सगा नहीं सकता।
140. समझदार की मर सै।
141. उनका के जीणा जिनके यार ना रहे।
142. ध्रती अर आसमान खड़े सैं र्ध्म, यकीन पै।
143. जिसनैं इश्क कर्या दुनियाँ म्हं उसनैं धेखा खाया।
144. बिना इश्क कोये बच्या नहीं।
145. इश्क ब्यमारी हो खोट्टी।
146. जा की जा म्हं लगन है वा का वा म्हं राम।
147. जीणा, मरणा, दुख, सुख यो मालिक के हाथ सै।
148. इश्क कमावण आळ्या नैं एकसा दिन-रात सै।
149. आशिकी खोट्टी ना छोड्डै जात सै।
150. बिना भाग बिना मात्थै मेंहदी कती रचण की ना।
151. रण म्हं शोर मचादे इसी हो आण छत्रा कै।
152. कर्म, र्ध्म की लाग छत्रा कै।
153. ढुका पै बनड़ा ब्याह म्हं भाती की बाट एक सी हो सै।
154. जीम्मण, काज, द्यसोट्टणऋ गोती, नाती बिन सून्ना।
155. बड़े-बड़े धेखा खागे लड़ कै नैं बीर बिराणी तैं।
156. सबतैं बड्डा बीर का दर्जा।
157. बीर तैं खसणा ठीक नहीं।
158. आ, बैठ और पी पाणीऋ ना मोल कितै तैं ल्याणी।
159. मर्दां नैं पीट्टैं बीर जगत म्हं इसा व्यवहार बुरा हो।
160. काम, क्रोध्, मद, लोभ, मोह सबतैं अहंकार बुरा हो।
161. किसी लुगाई, ज्यब कर दिया हाथ मरद पै।
162. हाळी अर पाळी नैं नक्शा पड़ै ओटणा घणा रूखाळी का।
163. चढ़ी जवानी पिया पास ना न्यूँ कौण बीर डटज्या सै।
164. वेद, शास्त्रा का हाल काशी, कश्मीर तैं सुणो।
165. होया करै मर्द का वजीर बीर।
166. जिसकी बेट्टी उसका जन्म दुखी।
167. खैर माँगता कौण भला विषयर नै दूध् पिला कै।
168. मोहब्बत चीज इसी हो छुरा गोती नाती ध्र दे।
169. जिसका डिगज्या र्ध्म, ईमान वा टोहवै खसम रोज सुथरे।
170. इश्क कसाई हो खोट्टा।
171. बदबोई, खुशबोई दे सै दूर तैं छय्का।
172. बळद ब्यना ध्ेला भी ना हाळी का।
173. लाचारी पर्वत तैं भारी।
174. सही हिसाब बाप-बेट्टे का।
175. बीर भलि ना दुनियाँ म्हं।
176. म्यलकै दगा कमावैं बतावै कैसे प्यारे हो।
177. कदे ना लाग्गै ज्ञान काग कै।
178. इश्क कसाई इसा भुँडा।
179. जोबन, रहन, जवानी, हीरे चलती गेल नहीं।
     इश्क कमाकै देखो जिसनैं देखी जेल नहीं।
180. मिलकै दगा कमावणियाँ की पफलती बेल नहीं।
181. आशिक कदे ना बसते।
182. तोड़े तैं ना टुट्टैंगे री जिनके सच्चे प्यार।
183. नुगरे डुब्बे अध्र धर सुगर्याँ के बेड़े पार हुये।
184. हाय बहोत बुरी हो सै।
185. जिसपै फ्रयरज्या मेहर गुरु की एक तोळे तैं सेर कर दे।
186. हंस के गुण हो हंस म्हं और काग के गुण काग म्हं।
187. औस कैसा पाणी हो सै नाक, नजाकत, नूर।
188. किसनैं त्यागी माया।
189. शब्द साक्षी दिल के अंदर का।
190. ध्न, जीवन और श्यानऋ चंद रोज का मेहमान।
191. सब दुख ले झेल, तो होगा दुश्मन पेफल।
192. हराम की मौत के म्हाँ कोये हिमाती पावै ना।
193. जन्म भूमि म्हं मोह हो सबका।
194. हो मरद का बीर इलाज।
195. ध्न बिन किसी मरोड़।
196. सदा बेट्टी की माँ हुई।
197. दुनियाँ म्हं हार हो सै आदमी की टोट्टे तैं।
198. बेट्टा-बेट्टी की दुनियाँ म्हं किसनैं ना चाह हुईं।
199. ताजा पफळ जो मिलैं टेम पै आज्या तरी दिमाग म्हं।
200. नारी आध्े अंग की साज्झी।
201. कोण मरद नैं सब्र कर्या बीराँ के बार्याँ म्हं।
202. वाद, विरोध्, बरबाद फ्रयकर बेकाम जिंदगी है।
203. जो कहदी मुँह तैं बाहण, वा घर और घाट एक सी हो सै।
204. दगा किसै का सगा नहीं।
205. जो बालकपण म्हं आदत पड़ज्या, मरण तलक बी छुटती ना।
206. बर्तमान बलवान होया करै।
207. वो जीत्तैंगे सही पाळे जिनके सही रहगे।
208. र्ध्म की हो जीत।
209. भीड़ पड़ी म्हं लोगों प्यारे बी बण ज्याँ द्रोही।
210. बीर-मर्द की सुख-दुख जगत म्हं एक होया करै पिया।
211. जर, जोरू, जमीण पै झगड़ा।
212. पुत तैं प्यारी होया करै सै प्रजा राजा नैं।
213. काम, क्रोध्, मद, लोभ, मोह, भ्रम की जोड़ी हो।
214. चोरी, जारी, हठर्ध्मी यो काल हो रजपूत का।
215. मरदान भगत, दातार सखी सब बाताँ म्हं मजबूत।
216. ध्नपत सिंह घर बार ब्यना कोये पास नहीं होता।
217. के लोंडे, रंडी का प्यारा, ये तोते चिसम मक्कार हो सैं।
218. ध्नपत सिंह साज खुलणे पै कदे मंदा चाल्लै ना।
219. हो विष तै बुरा विश्वास।
220. जड़ै भाव, न्याय, इंसापफ नहींऋ ना वो भूप काम का।
221. ब्याहाँ पाच्छै पत्नी का आध सीर बताया।
222. अर्धंगिनी बनने पर घर बार लुगाई का।
223. चणे की गैल्याँ घुण पिसज्या न्यूँ स्यात लुगाई की।
224. स्याणी बेट्टी पीहर पै बड़ी मुश्किल झल्या करैं।
225. गमी, शादी म्हं एक हो उसनै भाईचारा कह्या करैं।
226. आशा, तृष्णा, माया, ममता का सबके शीश झमेला था।
231. अपणे-अपणे घर के सब राजे होया करैं।
232. पत्थर तैं बी करड़ी हो सै गरीब माणस की छाती।
233. या नीत इसी हो लालच जी तुरंत डिगाणी।
234. सिंहणी का हो एक शेर, पतिव्रता नैं पति एक हो।
235. अंध्े नैं चाँदणे का के तोल।
236. बिन काम होया करै सुस्ती, काम तै होया करै से चुस्ती।
237. नेड़े धेरे की असनाई दया करै भगवान मिलै।
238. र्ध्म, कर्म मिट ज्याँगेऋ घणी पैसे की जात बणाईये ना।
239. पहलवान, असनाई, औरत जोड़ी के आच्छे हों।
240. ध्नपत सिंह समर जमवा करणा कदे गरूर नहीं।
241. ध्नपत सिंह बौर हो सै करारी सुसराड की।
242. कुणबे का ईंचार्श बणना माँ मोटी बिमारी भाई।
243. ध्नपत सिंह नै बुझ लियो बाब्बू बिन काल्ली हो।
244. जिंदगी भर ना छोड्डया करते जिसका शरीपफ पकड़ ले हाथ।
245. ध्नपत सिंह सच्चा आशिक परले-पार उतरज्या।
246. बीराँ के म्हाँ सौक्कण जैसा और दुःख जबर नहीं सै।
247. रूप, जवानी सदा रहैं ना।
248. ध्नपत सिंह जमाने के म्हाँ समझदार की मर सै।
249. सब दुःख ले झेल, तो दुश्मन होगा पेफल।
250. बीर तैं खसणा ठीक नहीं।
251. जिसकै शर्म-हया वाये स्याणी
252. ना जाण न आळा भूलै, हो राजा, प्यार, प्रीत और बैर नै।।
253. भले घराँ के बाळक नैं इज्जत तैं डरणा हो सै।
254. आशिक का उफट-मटीला, कदे रह्या ना पफाद्या।
255. गात तोड़कै करै निताणा, इश्क बावळा भूत।
256. ध्नपत सिंह गुरू ना कमती पारस तैं।
257. एक आपा चाहिए सापफ।47
    विदेश में एकमात्रा साँगी मौजुदः- श्री ध्नपत सिंह के शिष्य श्री ‘बंदू मीर’ ही एक मात्रा ऐसे साँगी हैं जो आज भी पाकिस्तान में साँग      विध को जीवित रखे हुये हैं। हरियाणा से गये हुये अनेक परिवार पाकिस्तान में ऐसे मौजुद हैं जो मूलतः राजपूत से मुसलमान बने थे तथा बाद में बंटवारे के समय पाकिस्तान में चले गए थे। पाकिस्तान में भी वे हरियाणवी बोली का ही प्रयोग आम बोलचाल में करते हैं लेकिन वहाँ पर उसे अब हरियाण्वी न कहकर ‘राँघड़ी’ कहा जाता है। ‘पाक पंजाब के दक्षिणी भाग जिसे वहां की आज भाषा में लहंदा पंजाब पुकारते हैं, का सहायक इलाका एक तरह से मिनी हरियाणा नजर आता है। इस इलाके के जिला बिहाड़ी, मुलतान, बहावलपुर, खानेवाल, बक्खर व लहरया में जगह-जगह गूँजती रागणियाँ, हाथ पर हाथ मारकर आकाश गुँजाने वाले हरियाणवी स्टाइल के ठहाके, बाजरे की खिचड़ी व मेहमानबाजी के लिये पेश किया जाने वाला देशी घी का चूरमा एक बारगी तो अहसास ही नहीं होने देता कि आप जिला सोनीपत या रोहतक के किसी गाँव में हैं या पाकिस्तान में।’48 उस इलाके में हरियाणा के सभी साँगियों को लोग बखूबी जानते है। तीज-त्यौहारों के अवसरों पर खूब इनके किस्सों को गाया-बजाया जाता है।
    सुर्यास्तः- देह नश्वर है तथा आत्मा अमर है। जिस देह के निर्मित होने में पाँच तत्वों का सम्मिलन आवश्यक है, वह एक दिन समाप्त भी अवश्य होगी। आखिर जिसका जन्म हुआ है, उसका मरण भी होगा, जिसका प्रारंभ है उनका अंत भी होगा, पाँच तत्वों का मिलना हुआ है तो  उनका बिछौह भी होगा यह सनातन सत्य है। कोई माने या न माने, एक दिन सबको इसका सामना करना ही है। श्री ध्नपत सिंह भी इसके अपवाद नहीं हैं। चार दशक से भी अध्कि समय तक49 जब वे साँगों की स्वर-लहरियों पर लोगों को नाचने व झुमने पर विवश करते रहे तो एक दिन यह सिलसिला रूकना भी था। लकवे की व्याधि् ने उनकी नश्वर देह पर अपना घातक वार किया जिससे वे साँग करने में अशक्त हो गये।50 चिकित्सा के प्रभाव से व्याधि् के लक्षण कम होते गए तथा वे पिफर से साँग करने लगे। साँग रसिकों ने राहत की श्वास ली। साँग महाकवि एक बार पिफर से अपनी साँग विध का जादू दिखाने लगा। चिकित्सकों ने साँग करने से मना कर दिया था। उनके अनुसार यदि ऐसा नहीं किया गया तो वे कभी भी निरोग नहीं हो पायेंगे। लेकिन कहते हैं न कि दीवानों को आज तक कौन रोक पाया है उनकी दीवानगी से। श्री ध्नपत सिंह भी कैसे साँग करने से रूकते। वे साँगों के प्रति इतने समर्पित हो चुके थे कि साँग किए बिना उन्हें जीवन व्यर्थ व निस्सार लगने लगा।51 देह तो मरणर्ध्मा है, यह जाए तो जायें, लेकिन कला अवश्य जीवित रहनी चाहिये। चिकित्सकों का कहना सच सि( हुआ और वे दोबारा लकवे की व्याधि् से ग्रस्त हो गये। अब तो मात्रा वे मंच पर बैठकर साँगों का निर्देशन मात्रा ही करते थे।52 उनके शिष्य साँग करते और वे मात्रा बैठे-बैठे उनको दिशा-निर्देश देते रहते। अपनी प्रेयसी से सच्चा प्रेमी कब अलग रह पाया है? दोनों एक-दूसरे हेतु जीवन होते हैं तथा अलगाव मृत्यु का कारण बन जाता है। देह कब तक आत्मा के बिना जीवित रहेगी? आत्मा निकली और देह मरी। वे तो जन्मे ही थे साँग करने हेतु। साँग करते रहे तो जीवित रहे तथा लोगों को मस्ती में भरकर झूमने पर विवश करते रहे और ज्यों ही साँग करने में समर्थ नहीं रहे, उन्होंने यहाँ से चले जाना ही उचित जान पड़ा। इस नश्वर देह का त्याग करके वे सोमवार 29 जनवरी 1979 ई. को साँय 5 बजे परमपिता परमात्मा के दिव्य उफर्जा लोक को गमन कर गये। सर्वाध्कि साँगों के रचयिता तथा सर्वाध्कि समय तक साँग करने वाले साँगों के महाकवि क्राँतिकारी साँगी श्री ध्नपत सिंह अपने पीछे अपने साँगी शिष्यों की एक लंबी कतार छोड़कर गये हैं।53
-आचार्य शीलक राम जांगड़ा
ग्राम$पत्रालय -चुलियाणा रोहज
जिला-रोहतक-124527 ;हरियाणाद्ध
सचलभासः 9813013065, 9416851571
संदर्भ-सूची
1.  साँगी श्री मेनपाल ;साँगी श्री ध्नपत सिंह के सुपुत्राद्ध
2.  उपरिवत्
3.  साँगी श्री राजेश ;साँगी श्री ध्नपत सिंह के पौत्राद्ध
4.  साँगी श्री मेनपाल ;साँगी श्री ध्नपत सिंह के सुपुत्राद्ध
5.  उपरिवत्
6.  उपरिवत्
7.  आचार्य शीलक राम जाँगड़ा, ब्रह्मज्ञानी कौन?
8.  श्री जयनारायण रोहज, ग्राम-चुलियाणा ;रोहतकद्ध
9.  उपरिवत्
10. साँगी श्री मेनपाल ;साँगी श्री ध्नपत सिंह के सुपुत्राद्ध
11. उपरिवत्
12. साँगी श्री राजेश ;साँगी श्री ध्नपत सिंह के पौत्राद्ध
13. रघुबीर सिंह मथाना, कवि शिरोमणि पं. मांगेरामकृत हरियाणवी             ग्रंथावलीद्ध
14. साँगी श्री मेनपाल ;साँगी श्री ध्नपत सिंह के सुपुत्राद्ध
15. उपरिवत्
16. आचार्य शीलक राम जाँगड़ा
17. साँगी श्री मेनपाल ;साँगी श्री ध्नपत सिंह के सुपुत्राद्ध
18. उपरिवत्
19. श्री जयनारायण रोहज, ग्राम-चुलियाणा;रोहतकद्ध
20. उपरिवत्
21. साँगी पं. श्री माँगेराम
22.श्री जयनारायण रोहज, ग्राम-चुलियाणा;रोहतकद्ध
23. उपरिवत्
24. उपरिवत्
25. साँगी श्री ध्नपत सिंह, साँग ‘रूप-बसंत’
26. साँगी श्री मेनपाल ;साँगी श्री ध्नपत सिंह के सुपुत्राद्ध
27. उपरिवत्
28. उपरिवत्
29. उपरिवत्
30. श्री जयनारायण रोहज, ग्राम-चुलियाणा ;रोहतकद्ध
31. उपरिवत्
32. उपरिवत्
33. उपरिवत्
34. उपरिवत्
35. आचार्य शीलक राम जाँगड़ा
36. साँगी श्री ध्नपत सिंह, साँग निहालदे-सुलतान
37. साँगी श्री ध्नपत सिंह, साँग ‘रूप-बसंत’
38. उपरिवत्             ‘साँग जंगल की राणी’
39. उपरिवत्            ‘साँग हीरामल-जमाल’
40. उपरिवत्            ‘साँग जंगल की राणी’
41. उपरिवत्            ‘साँग बादल-बागी’
42. उपरिवत्            ‘साँग गोपीचंद’
43. उपरिवत्            ‘साँग अंजुमन आरा’
44. उपरिवत्            ‘साँग अशोक-शीलो’
45. उपरिवत्            ‘साँग राजा अंब’
46. उपरिवत्            ‘साँग ज्यानी-चोर’
47. साँगी श्री ध्नपत सिंह ;विभिन्न साँगद्ध
48. दैनिक जागरण समाचार पत्रा ;नवम्बर 1, 2008द्ध
49. श्री जागेराम, ग्राम-पहाड़ीपुर, जिला-झज्जर
50. स्वर्गीय श्री रामचंद्र रोहज ;भूतपूर्व सरपंचद्ध, ग्राम-चुलियाणा ;रोहतकद्ध
51. श्री अमरसिंह यादव, ग्राम-चुलियाणा रोहज ;रोहतकद्ध
52. श्री दीपराम ;आयु-92 वर्षद्ध, ग्राम चुलियाणा ;रोहतकद्ध
53. श्री जयनारायण रोहज, ग्राम-चुलियाणा ;रोहतकद्ध
   साँगी श्री ध्नपत सिंह ;विभिन्न साँगद्ध
   दैनिक जागरण समाचार पत्रा, दिनांक-नवंबर 1, 2008

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